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भारत के प्रमुख प्राचीन अधिनियम | Major Ancient Acts of India in Hindi।

भारत के प्रमुख प्राचीन अधिनियम (Major Ancient Acts of India)

भारतीय इतिहास के प्रमुख अधिनियम, अधिनियम- केन्द्र में संसद या राज्य में विधानसभा द्वारा पारित किसी विधान को कहते हैं।अंग्रेजो के शासन काल के दौरान जो नियम ब्रिटिश शासन द्वारा बनाए गए वो अधिनियम कहलाये। जब संसद या विधानसभा की सर्वसम्मति या सर्वाधिक मतों से पारित होने के बाद उस बिल या विधेयक को अधिनियम का दर्जा मिल जाता है। भारतीय इतिहास में समय-समय पर कई तरह के अधिनियम या भारत के प्रमुख प्राचीन अधिनियम लागू करती आई हैं. भारतीय अधिनियम से जुड़े प्रश्न प्राय: प्रतियोगी परीक्षाओं में पूछे जाते हैं। आज के इस आर्टिकल में हम भारत के प्रमुख अधिनियम के बारे में पूरी जानकारी देखने वाले हैं, जिसमे भारतीय इतिहास के प्रमुख अधिनियमों के बारे में जानेंगे- 

                                           भारत के प्रमुख प्राचीन अधिनियम | Major Ancient Acts of India in Hindi।


    रेग्युलेटिंग अधिनियम 1773(Regulating Act 1773):- 

    • रेग्युलेटिंग अधिनियम 1773 बंगाल के फोर्ट विलियम प्रेसीडेंसी के प्रशासक को इस एक्ट के माध्यम से अंग्रेजी क्षेत्रों का गवर्नर जनरल बना दिया गया अर्थात् बंगाल (कलकत्ता), मुंबई और मद्रास प्रेसिडेंसियों, जो एक-दूसरे से स्वतंत्र थीं, बंगाल प्रेसीडेंसी के अधीन करके बंगाल के गवर्नर को तीनों प्रेसीडेंसियों का गवर्नर जनरल बना दिया गया। 
    • कंपनी के शासन पर संसदीय नियंत्रण स्थापित किया गया। 
    • कलकत्ता में एक उच्चतम न्यायालय की स्थापना 1774 में की गयी। इसे सिविल, आपराधिक, नौसेना तथा धार्मिक मामलों में अधिकारिता प्राप्त थी। कंपनी द्वारा शासन के लिए पहली बार एक लिखित संविधान प्रस्तुत किया गया। 
    • सरकारी अधिकारियों को प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से किसी रूप में उपहार लेने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। 
    • इस अधिनियम द्वारा कंपनी के कर्मचारियों को बिना लाइसेंस प्राप्त किए व्यापार को प्रतिबंधित कर दिया गया।

    संशोधनात्मक अधिनियम 1781(amending act 1781):-  

    • संशोधनात्मक अधिनियम 1781 कलकत्ता की सरकार को बंगाल, बिहार और उड़ीसा के लिए भी विधि बनाने का अधिकार प्रदान किया गया।
    • कंपनी के अधिकारी शासकीय रूप से किए गए अपने कार्य के लिए सर्वोच्च न्यायालय के कार्य क्षेत्र से बाहर हो गए। 
    • सर्वोच्च न्यायालय का कार्यक्षेत्र और स्पष्ट कर दिया गया। न्यायालय की अपनी आज्ञाएं तथा आदेश लागू करते समय सरकार नियम तथा विनिमय बनाते समय भारत के सामाजिक धार्मिक रीति-रिवाजों पर भी ध्यान देगी। 
    • गवर्नर-जनरल-इन-कांउसिल को सर्वोच्च न्यायालय की अधिकारिता से मुक्त कर दिया गया।

    पिट्स इण्डिया अधिनियम1784(Pitt's India Act1784):-

    • पिट्स इण्डिया अधिनियम1784 बोर्ड ऑफ डायरेक्स के नियंत्रण हेतु उसके ऊपर बोर्ड और कंट्रोल की स्थापना की गयी जिसके सदस्यों की नियुक्ति इंग्लैण्ड का सम्राट करता था। 
    • भारत में प्रशासन गर्वनर जनरल तथा उसकी तीन सदस्यों वाली एक परिषद को दे दिया गया। 
    • गर्वनर जनरल की परिषद की सदस्य संख्या 4 से घटाकर 3 कर दी गई साथ ही मद्रास तथा बंबई की सरकारों को पूरी तरह से बंगाल सरकार के अधीन कर दिया गया। 
    • बंबई तथा मद्रास प्रेसिडेंसियाँ गर्वनर-जनरल और उसकी परिषद् के अधीन कर दी गईं। 

    1786 का अधिनियम(Act of 1786):- 

    • 1786 का अधिनियम गर्वनर जनरल को मुख्य सेनापति की शक्तियाँ दी गयीं। गवर्नर जनरल को अपनी परिषद के निर्णयों को विशेष परिस्थिति में रद्द करने तथा अपने निर्णय लागू करने का अधिकार दिया गया। 
    • चार्टर अधिनियम 1793 इसके द्वारा सभी कानूनों एवं विनियमों की व्याख्या का अधिकार न्यायालय को दिया गया। 
    • कंपनी के व्यापारिक अधिकारों को और 20 वर्षों के लिए बढ़ा दिया गया। 
    • अपनी परिषद् के निर्णयों को रद्द करने की जो शक्ति लार्ड कार्नवालिस को दी गई थी, वह आने वाले गवर्नर-जनरल तथा गर्वनरों को भी दे दी गई। 
    • गवर्नर-जनरल का बंबई तथा मद्रास प्रेसिडेन्सियों पर अधिकार स्पष्ट कर दिया गया।
    • सदस्यों की नियुक्ति इंग्लैण्ड का सम्राट करता था। भारत में प्रशासन गर्वनर जनरल तथा उसकी तीन सदस्यों वाली एक परिषद को दे दिया गया। 
    • गर्वनर जनरल की परिषद की सदस्य संख्या 4 से घटाकर 3 कर दी गई साथ ही मद्रास तथा बंबई की सरकारों को पूरी तरह से बंगाल सरकार के अधीन कर दिया गया। 
    • बंबई तथा मद्रास प्रेसिडेंसियाँ गर्वनर-जनरल और उसकी परिषद् के अधीन कर दी गईं। 

    1786 का अधिनियम(Act of 1786):-

    • 1786 का अधिनियम गर्वनर जनरल को मुख्य सेनापति की शक्तियाँ दी गयीं। 

    • गवर्नर जनरल को अपनी परिषद के निर्णयों को विशेष परिस्थिति में रद्द करने तथा अपने निर्णय लागू करने का अधिकार दिया गया। 

    चार्टर अधिनियम 1793(Charter Act 1793):-

    • चार्टर अधिनियम 1793 द्वारा सभी कानूनों एवं विनियमों की व्याख्या का अधिकार न्यायालय को दिया गया। 
    • कंपनी के व्यापारिक अधिकारों को और 20 वर्षों के लिए बढ़ा दिया गया। 
    • अपनी परिषद् के निर्णयों को रद्द करने की जो शक्ति लार्ड कार्नवालिस को दी गई थी, वह आने वाले गवर्नर-जनरल तथा गर्वनरों को भी दे दी गई। 
    • भारतीय कानूनों का वर्गीकरण किया गया तथा इस कार्य के लिए विधि आयोग की व्यवस्था की गयी। 

    चार्टर अधिनियम 1853(Charter Act 1853):-

    • चार्टर अधिनियम 1853 में विधायी कार्यों के लिए परिषद में छह विशेष सदस्य जोड़कर इसका विस्तार कर दिया गया। 
    • कंपनी के लोक सेवकों की नियुक्ति के लिए खुली प्रतियोगिता परीक्षा की एक प्रणाली को आधार बनाकर प्रस्तुत किया गया। 
    • इस प्रकार विशिष्ट सिविल सेवा भारतीय नागरिकों के लिए भी खोल दी गई और इसके लिए 1854 में (भारतीय सिविल सेवा के संबंध में) मैकाले समिति की नियुक्ति की गई। 
    • इसी अधिनियम द्वारा भारत में संसदीय पद्धति के आरंभ का संकेत मिलता है इसके तहत पहली बार कार्यपालिका तथा विधायी शक्तियों को पृथक् करने का एक ठोस कदम उठाया गया और संपूर्ण भारत के लिए एक पृथक् विधान परिषद की स्थापना की गयी आगे चलकर इसी विधान परिषद ने एक लघु संसद का रूप धारण कर लिया। 
    • इन सदस्यों को विधियाँ तथा विनियम बनाने के लिए बुलाई गई बैठकों के अलावा परिषद में बैठने तथा मतदान करने का अधिकार नहीं था, इन सदस्यों को 'विधायी परिषद' कहा जाता था।

    1858 का अधिनियम(Act of 1858):-

    • 1858 का अधिनियम में ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन की समाप्ति और ब्रिटिश सरकार का सीधा शासन प्रारंभ होना। 
    • गर्वनर जनरल को “द वायसराय ऑफ इण्डिया" का पदनाम भी दिया गया। लार्ड केनिंग भारत के प्रथम वायसराय बने। 
    • यह प्रतिवर्ष भारत की नैतिक एवं आर्थिक प्रगति की रिपोर्ट संसद के समक्ष प्रस्तुत करता था। 

    • भारत में शासन तथा राजस्व से संबंधित अधिकार तथा कर्तव्य "भारत के लिए राज्य सचिव" का पदनाम भी दिया गया। 
    • "भारत सचिव" ब्रिटिश कैबिनेट का सदस्य होता था तथा ब्रिटिश संसद के प्रति उत्तरदायी था, किंतु उसका वेतन भारत पर भारित था। 
    • उसकी सहायता के लिए 15 सदस्यों वाली भारतीय परिषद थी। इस अधिनियम ने नियंत्रण बोर्ड और निदेशक कोर्ट समाप्त कर भारत में शासन की द्वैध प्रणाली समाप्त कर दी। 

    1861 का अधिनियम(Act of 1861):-

    • 1861 का अधिनियम द्वारा ब्रिटिश सरकार ने वायसराय तथा प्रांतों के गर्वनर के अधिकार बढ़ा दिए। 
    • भारतीयों के साथ व्यवस्थापन के कार्य की बात अवश्य हुई थी, लेकिन अधिनियम में ऐसा प्रावधान नहीं था। 
    • पोर्टफोलियो व्यवस्था का प्रारंभ हुआ तथा वायसराय को विपत्ति में अध्यादेश जारी करने का अधिकार दिया गया। 
    • 1861 का अधिनियम  में गैर-अधिकारी सदस्यों के साथ व्यवस्थापनी व्यवस्था को प्रारंभ किया गया।

    1892 का अधिनियम(Act of 1892):-

    • 1892 का अधिनियम 1861 के अधिनियम का एक संशोधनात्मक विधेयक था। 
    • व्यवस्थापिकाओं में प्रतिबंधित समिति एवं अप्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित सदस्यों का प्रावधान किया गया। 
    • 1892 का अधिनियम  में सदस्यों को व्यवस्थापिकाओं में बजट पर विचार-विमर्श करने तथा प्रश्न पूछने का अधिकार दिया गया। इसे संसदीय व्यवस्था का प्रारम्भ कहा जा सकता है। 

    1909 का अधिनियम(Act of 1909):-

    • 1909 का अधिनियम को मॉर्ले-मिंटो सुधार के सुधार के नाम से भी जाना जाता है (उस समय लॉर्ड माले इंग्लैंड में भारत के राज्य सचिव थे और लॉर्ड मिंटो भारत में वायसराय थे)। 
    • इसने केंद्रीय और प्रांतीय विधानपरिषदों के आकार में काफी वृद्धि की। केंद्रीय परिषद में इनकी संख्या 16 से 60 हो गई। 
    • प्रांतीय विधानपरिषदों में इनकी संख्या एक समान नहीं थी। इसने केंद्रीय परिषद में सरकारी बहुमत को बनाए रखा, लेकिन प्रांतीय परिषदों में गैर-सरकारी सदस्यों के बहुमत की अनुमति थी। 
    • इसने दोनों स्तरों पर विधान परिषदों के चर्चा कार्यों का दायरा बढ़ाया। उदाहरण के तौर पर अनुपूरक प्रश्न पूछना, बजट पर संकल्प रखना आदि।
    • 1909 का अधिनियम के अंतर्गत पहली बार किसी भारतीय को वायसराय और गवर्नर की कार्यपरिषद के साथ एसोसिएशन बनाने का प्रावधान किया गया। 
    • सत्येन्द्र प्रसाद सिन्हा वायसराय की कार्यपालिका परिषद के प्रथम भारतीय सदस्य बने। उन्हें विधि सदस्य बनाया गया था। 
    • 1909 का अधिनियम ने पृथक निर्वाचन के आधार पर मुस्लिमों के लिए सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व का प्रावधान किया। 
    • 1909 का अधिनियम अंतर्गत मुस्लिम सदस्यों का चुनाव मुस्लिम मतदाता ही कर सकते थे। इस प्रकार इस अधिनियम ने सांप्रदायिकता को वैधानिकता प्रदान की और लॉर्ड मिंटो को सांप्रदायिक निर्वाचन के जनक के रूप में जाना गया। 
    • 1909 का अधिनियम ने  प्रेसिडेंसी कॉरपोरेशन, चैंबर्स ऑफ कॉमर्स, विश्वविद्यालयों और जमींदारों के लिए अलग प्रतिनिधित्व का प्रावधान भी किया। .

    अधिनियम की विशेषताएं(Features of the Act):-

    1. केंद्रीय और प्रांतीय विषयों की सूची की पहचान कर एवं उन्हें पृथक् कर राज्यों पर केंद्रीय नियंत्रण कम किया गया। केंद्रीय और प्रांतीय विधानपरिषदों को, अपनी सूचियों के विषयों पर विधान बनाने का अधिकार प्रदान किया गया। लेकिन सरकार का ढाँचा केंद्रीय और एकात्मक ही बना रहा। 
    2. इसने प्रांतीय विषयों को पुनः दो भागों में विभक्त किया- हस्तांतरित और आरक्षित। हस्तांतरित विषयों पर गवर्नर का शासन होता था और उस कार्य में वह उन मंत्रियों की सहायता लेता था, जो विधान परिषद के प्रति उत्तरदायी थे। दूसरी ओर आरक्षित विषयों पर गवर्नर कार्यपालिका परिषद की सहायता से शासन करता था, जो विधानपरिषद के प्रति उत्तरदायी नहीं थी। 
    3. शासन की इस दोहरी व्यवस्था को द्वैध (यूनानी शब्द डाई-आर्की से व्युत्पन्न) शासन-व्यवस्था कहा गया। हालांकि यह व्यवस्था काफी हद तक असफल ही रही। इस अधिनियम ने पहली बार देश में द्विसदनीय व्यवस्था और प्रत्यक्ष निर्वाचन की व्यवस्था प्रारंभ की। 
    4. इस प्रकार भारतीय विधानपरिषद के स्थान पर द्विसदनीय व्यवस्था यानी राज्यसभा और लोकसभा का गठन किया गया। दोनों सदनों के बहुसंख्यक सदस्यों को प्रत्यक्ष निर्वाचन के माध्यम से निर्वाचित किया जाता था।
    FAQ:-
    1.1935 का गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट क्यों महत्वपूर्ण है?

    उत्तर:- वर्तमान भारतीय संविधान का प्रमुख स्रोत भारत शासन अधिनियम 1935 है ।

    2.1935 में भारत का गवर्नर जनरल कौन था?

    उत्तर:- 1935 भारत शासन अधिनियम के समय भारत का गवर्नर जनरल लार्ड विलिंग्डन था ।

    भारतीय इतिहास के प्रमुख अधिनियम भरात को सही समय में नीतियों को लागू करने और व्यवस्था बनाये रखने में मदद करता हैं, जब भी किसी प्रतियोगी परीक्षा में सविधान और अधिनियम का जिक्र किया जाता हैं तब भारतीय इतिहास के प्रमुख अधिनियम की बात आती हैं. भारतीय इतिहास के प्रमुख अधिनियम अति महत्वपूर्ण हैं. 

    आशा करता हूँ कि यह पोस्ट आपके लिए उपयोगी साबित होगी ,अगर आपको पोस्ट पसंद आये तो पोस्ट को शेयर जरुर करें।


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