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भारत का संविधान सम्पूर्ण सामान्य ज्ञान 2022-23 (constitution of india general knowledge)

भारत का संविधान सामान्य ज्ञान (constitution of india general knowledge)

नमस्कार दोस्तों, आज के इस पोस्ट में हमने आपको भारत का संविधान सम्पूर्ण सामान्य ज्ञान की सभी टॉपिक को कवर किया हैं यदि आप किसी भी सेंट्रल गवर्मेंट की परीक्षा की तैयारी कर हैं तो आप नीचे दिए गये सभी टॉपिक का नोट्स जरुर बनाये और पुरे पोस्ट को पढ़ें नीचे आपको पीडीऍफ़ डाउनलोड करने का भी लिंक दिया गया हैं। विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं जैसे- UPSC,STATE PCS,SSC,RRB, NTPC,RAILWAY,CDS इत्यादि में भारत के संविधान से सम्बंधित सवाल पूछे जाते हैं। इस पोस्ट में भारत के संविधान से जुड़े महत्वपूर्ण प्रश्नों का संग्रह आगे आने वाले परीक्षाओं को ध्यान में रखकर किया गया है। 

bharat ka sanvidhan

भारत का संविधान सामान्य ज्ञान

हम, भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व-सम्पन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को : सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समानता प्राप्त करने के लिए,  तथा उन सबमे व्यक्ति की गरिमा और (राष्ट्र की एकता और अखण्डता) सुनिश्चित करने वाली बन्धुता बढ़ाने के लिए,  दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर, 1949 ई. (मिती मार्गशीर्ष शुक्ला सप्तमी, सम्वत् दो हजार छः विक्रमी) को एतद्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं.

नोट– संविधान की भूमिका में तीन शब्द समाजवादी (Socialist), धर्मनिरपेक्ष (Secular) और 'राष्ट्र की अखण्डता' (Integration) 42वें संशोधन अधिनियम, 1976 द्वारा जोड़े गए हैं.

भारतीय संविधान के विदेशी स्रोत (Foreign sources of Indian constitution)

  • संसदीय शासन पद्धति    - ब्रिटेन
  • मंत्रिमण्डल का सामूहिक उत्तरदायित्व    - ब्रिटेन
  • मूल अधिकार    - अमरीका
  • संघात्मक शासन प्रणाली    - अमरीका
  • न्यायिक पुनर्विलोकन    - अमरीका
  • उपराष्ट्रपति का पद    - अमरीका
  • केन्द्र राज्य सम्बन्ध    - कनाडा
  • राज्य के नीतिनिर्देशक तत्व    - आयरलैण्ड
  • आपात-उपबन्ध    - जर्मनी
  • मूल कर्त्तव्य    - पूर्व सोवियत संघ
  • समवर्ती सूची    - आस्ट्रेलिया
  • संविधान संशोधन    - द. अफ्रीका

संविधान की मुख्य विशेषताएँ (Salient Features of the Constitution)

  1. यह एक लिखित व निर्मित संविधान है.
  2. यह एक विस्तृत संविधान है.
  3. इसमें कठोरता और लचीलेपन का सामंजस्य है.
  4. इसका स्वरूप समन्वयात्मक है.
  5. यह जनता का संविधान है. प्रभुसत्ता जनता में निहित है.
  6. इसमें सम्पूर्ण प्रभुसत्व सम्पन्न लोकतन्त्रात्मक गणराज्य की व्यवस्था की गई है.
  7. इसमें समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष राज्य की व्यवस्था है.
  8. इसकी संघीय व्यवस्था अद्भुत है जिसमें एकात्म (Unitary) विशेषताएँ बहुत हैं.
  9. इसमें व्यक्ति के मौलिक अधिकारों और मौलिक कर्त्तव्यों की व्यवस्था की गई है.
  10. इसमें न्यायपालिका द्वारा अधिकारों की रक्षा की व्यवस्था है. 
  11. इसमें अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा की भी व्यवस्था की गई है. 
  12. इसमें राज्य के नीतिनिर्देशक तत्वों की भी व्यवस्था है. 
  13. इसमें अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग व विश्व शान्ति के आदर्श को मान्यता दी गई है. 
  14. यह लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना हेतु प्रतिबद्ध है.

संविधान में संशोधन की व्यवस्था (अनुच्छेद- 368)

संविधान के भाग-20 में संशोधन के विषय में तीन प्रकार की व्यवस्थाएं हैं -

(1) कुछ विषयों से सम्बन्धित संविधान की धाराओं का संशोधन केवल तभी किया जा सकता है. जब संसद के दोनों सदनों में वोट देने वाले सदस्यों का दो-तिहाई बहुमत तथा कुल सदस्य संख्या का बहुमत उसे स्वीकार करे और कम-से-कम आधे राज्य उसकी पुष्टि करें. इस श्रेणी में आने वाले मुख्य विषय हैं : राष्ट्रपति की निर्वाचन प्रणाली (अनुच्छेद-54 एवं 55), संघीय कार्यपालिका के अधिकार और उनके कार्यक्षेत्र (अनुच्छेद-73), उच्चतम न्यायालय सम्बन्धी अनुच्छेद, राज्यों के उच्च न्यायालयों की व्यवस्था से सम्बन्धित अनुच्छेद, संघ और राज्यों के बीच व्यवस्थापन सम्बन्धी शक्तियों का वितरण, संविधान संशोधन प्रणाली इत्यादि. 

(2) कुछ विषयों से सम्बन्धित संविधान के अनुच्छेद का संशोधन उस समय स्वीकृत समझा जाएगा, जबकि संसद के दोनों सदन अपने कुल सदस्यों की संख्या के बहुमत और सदन में संशोधन पर मतदान के समय उपस्थित तथा मत देने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत द्वारा उसे मान लें. 

(3) कुछ अनुच्छेद ऐसे भी हैं, जिनका संशोधन संसद के साधारण बहुमत की स्वीकृति से ही हो जाता है.

संविधान की अनुसूची (Schedule of Constitution in Hindi)

वर्तमान में भारतीय संविधान की 12 अनुसूचियाँ हैं, जो निम्नलिखित प्रकार हैं -

  • प्रथम - भारतीय संघ में सम्मिलित विभिन्न राज्यों तथा केन्द्रशासित प्रदेशों की सूची. 
  • द्वितीय - राष्ट्रपति, राज्यपाल, न्यायाधीशों आदि के वेतन भत्ते. 
  • तृतीय - शपथ (Oaths) का वर्णन. 
  • चतुर्थ - राज्य सभा के लिए प्रत्येक राज्य व संघीय प्रदेश से भेजे जाने वाले प्रतिनिधियों की संख्या.
  • पंचम- अनुसूचित जनजातियों व जनजातीय क्षेत्रों के प्रशासन व नियंत्रण से सम्बन्धित प्रावधान. 
  • षष्ठम - असम, मेघालय व मिजोरम की जनजातीय क्षेत्रों का प्रशासन. 
  • सप्तम - केन्द्र तथा राज्यों को दिए गए अधिकार व शक्तियाँ. 
  • अष्टम - राष्ट्रीय भाषाओं (22) की सूची. 
  • नवम् - भूमि अधिग्रहण के अधिनियम.
  • दसवीं - दल-बदल विरोधी कानून. 
  • ग्यारहवीं - पंचायत राज व्यवस्था को रखने का प्रावधान.
  • बारहवीं - नगर निकाय व्यवस्था को रखने का प्रावधान.

नागरिकता (Citizenship: अनुच्छेद 5-11)

निम्नलिखित व्यक्ति भारतीय नागरिकों की श्रेणी में आते हैं - 

  1. प्रथम श्रेणी में वे व्यक्ति आते हैं, जो भारत की भूमि पर पैदा हुए हैं. 
  2. द्वितीय श्रेणी में वे व्यक्ति आते हैं, जिनके माता या पिता में से कोई एक भारत की भूमि पर पैदा हुआ हो. 
  3. तृतीय श्रेणी में वे व्यक्ति आते हैं, जो भारतीय संविधान के प्रभावी होने के पूर्व कम-से-कम पाँच वर्ष से भारत की भूमि पर निवास कर रहे हों.

इसके अतिरिक्त पाकिस्तान से भारत आए हुए व्यक्तियों का भी विवेचन संविधान में किया गया है. पाकिस्तान से आए लोगों को दो भागों में विभक्त किया गया है -

 प्रथम - वे, जो 19 जुलाई, 1948 के पूर्व भारत आए.

 द्वितीय - वे, जो 19 जुलाई, 1948 या उसके पश्चात् भारत आए. 

उपर्युक्त दोनों श्रेणियों के व्यक्ति भारत के नागरिक वन सकते हैं. यदि वे स्वयं या उनके माता-पिता में से एक या उनके बाबा-दादी में से कोई अविभाजित भारत में पैदा हुए हों. इसके साथ-साथ वे व्यक्ति जो 19 जुलाई, 1948 के पूर्व भारत आ गए थे. यदि उस समय से बराबर भारत की भूमि पर रह रहे हैं, तो उन्हें भारत के नागरिक होने की मान्यता है, परन्तु उन व्यक्तियों के लिए, 19 जुलाई, 1948 को या उसके पश्चात् भारत आए, भारत का नागरिक बनने के लिए एक प्रार्थना पत्र द्वारा भारत सरकार द्वारा नियुक्त किसी रजिस्ट्रेशन पदाधिकारी से अपना नाम भारतीय संविधान के लागू होने से पूर्व नागरिकों की सूची में लिखना अनिवार्य था. इस प्रावधान में वही व्यक्ति अपना नाम अंकित कराने के अधिकारी थे जो प्रार्थना पत्र देने से 6 माह पूर्व भारत में निवास कर रहे थे.

नागरिकता का लोप (Annulment of Citizenship)

निम्नलिखित दशाओं में किसी व्यक्ति की भारतीय नागरिकता लोप हो सकती है:

  • यदि कोई भारतीय दूसरे देश की नागरिकता ग्रहण कर ले (By Renunciation). 
  • यदि कोई भारतीय स्त्री किसी विदेशी नागरिक से विवाह कर ले (By Termi nation).
  • यदि किसी ने धोखा देकर यहाँ की नागरिकता प्राप्त कर ली हो, या देश द्रोही हो या युद्ध के समय शत्रु देश की सहायता की हो (By Deprivation). 

भारतीय संविधान में देश में सभी नागरिकों के लिए एक ही नागरिकता रखी गई है और वह है 'भारतीय नागरिकता'.

मौलिक अधिकार (अनुच्छेद 14-35) (Fundamental Rights)

भारतीय संविधान में नागरिकों को प्रारम्भ में 7 मौलिक अधिकार प्रदान किए गए थे, लेकिन सम्पत्ति का अधिकार 44वें संविधान द्वारा समाप्त कर दिया गया है और अब केवल 6 मौलिक अधिकार विद्यमान हैं, जो निम्नलिखित हैं: 

(1) समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14-18) –

 (i) कानून की दृष्टि से सब नागरिक समान हैं, 

(ii) धर्म, जाति, लिंग, जन्म और रंग के आधार पर किसी के साथ पक्षपात और भेदभाव नहीं किया जाएगा, 

(iii) सब नागरिकों को योग्यतानुसार सरकारी नौकरी प्राप्त करने का समान अधिकार है, 

(iv) छुआछूत का अन्त तथा 

(v) उपाधियों का अन्त.

(2) स्वतन्त्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19-22) –

  1. विचारों की स्वतन्त्रता,
  2. संघ सम्मेलन की स्वतन्त्रता,
  3. भारत में कहीं भी बसने और भ्रमण करने की स्वतन्त्रता,
  4. व्यावसायिक स्वतन्त्रता, 
  5. वैयक्तिक स्वतन्त्रता.

(1) 86वें संविधान संशोधन अधिनियम 2002 के द्वारा अनुच्छेद 21 के बाद नया अनुच्छेद 21ए जोड़ा गया जो बच्चों के शिक्षा के अधिकार से सम्बन्धित है. 

(2) “राज्य के 6 से 14 वर्ष तक के सभी बच्चों को निःशुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध करानी होगी. यह सम्बन्धित राज्य द्वारा निर्धारित कानून के तहत् होगी.” 

(3) शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23 व अनुच्छेद 24) – 

इसके अंतर्गत कोई भी व्यक्ति किसी भी व्यक्ति से बेगार नहीं ले सकता. मनुष्यों का क्रय-विक्रय नहीं किया जा सकता है और चौदह वर्ष से कम आयु के बालकों को खतरे के कार्य पर नहीं लगाया जा सकता है.

(4) धर्म की स्वतन्त्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25-28) –

 इसके अन्तर्गत किसी भी धर्म में विश्वास करने, उसका शान्तिपूर्ण ढंग से प्रचार करने, धार्मिक संस्थाएँ चलाने आदि की स्वतन्त्रतायें शामिल हैं.

(5) सांस्कृतिक तथा शिक्षा सम्बन्धी अधिकार (अनुच्छेद 29-30) –

 इसके अनुसार प्रत्येक नागरिक अपनी भाषा, लिपि और संस्कृति को अपना सकता है और उनकी रक्षा के लिए शिक्षण संस्था स्थापित कर सकता है.

(6) संवैधानिक उपचारों का अधिकार (अनुच्छेद 32) – 

इससे नागरिक अपने मूल अघि कारों की सुरक्षा कर सकते हैं. मूल अधिकारों के अपहरण की अवस्था में नागरिक न्यायालय की शरण ले सकता है.

मौलिक अधिकारों को आपातकालीन (इमरजेंसी) अवधि में निलम्बित रखा जा सकता है. संविधान के 44वें संशोधन में अन्य बातों के अलावा यह व्यवस्था भी की गई है कि जीवन और स्वतंत्रता के मूल अधिकारों को आपातकाल में भी स्थगित नहीं किया जा सकता है.

नोट - चौबीसवें संविधान संशोधन के अनुसार संसद मौलिक अधिकारों को मिलाकर संविधान के किसी भी भाग का संशोधन कर सकती है.

सम्पत्ति का अधिकार (Right to Property)

संविधान में अनुच्छेद 300 क संविधान के 44वें संशोधन अधिनियम, 1978 के द्वारा संविधान में समाविष्ट किया गया है. 44वें संविधान संशोधन के मूल अनुच्छेद 31 के द्वारा प्रदत्त सम्पत्ति के मूल अधिकार को समाप्त कर दिया गया है. अब इसे अनुच्छेद 300 क के अधीन एक विधिक अधिकार के रूप में रखा गया है, जिसका विनियमन साधारण विधियों को पारित करके किया जा सकता है. इसके लिए संवैधानिक संशोधन की आवश्यकता नहींहोगी. अनुच्छेद 300 क यह उपबंधित करता है कि 'कोई व्यक्ति विधि के प्राधिकार के विना अपनी सम्पत्ति से वंचित नहीं किया जाएगा.

राज्य के नीति-निर्देशक तत्व (अनुच्छेद 36-51) (Directive Principles of State Policy)

भारतीय संविधान के भाग-4 में वर्णित राज्य के नीति-निर्देशक तत्व सरकार के लिए वे निर्देश हैं, जिन पर चलकर राज्य समाजवाद और न्याय की ओर अग्रसर होगा. 42वें संविधान संशोधन अधिनियम के अनुसार नीति-निर्देशक सिद्धान्तों को न्यायालय के माध्यम से लागू (Enforce) कराये जाने का प्रावधान था, लेकिन हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने मिनर्वा टैक्सटाइल केस के निर्णय के द्वारा उक्त प्रावधान को निरस्त कर दिया है. इन सिद्धान्तों को छः भागों में विभाजित किया जा सकता है:

1. आर्थिक व्यवस्था सम्बन्धी –

  1. सभी नागरिकों को समान रूप से जीविका के उचित साधनों की व्यवस्था, 
  2. राष्ट्रीय सम्पत्ति का न्यायसंगत वितरण, 
  3. न्यूनतम वेतन का निर्धारण करना, 
  4. अस्वास्थ्यकर कार्य करने की परिस्थितियों की रोकथाम करना, 
  5. बेरोजगारी, वृद्धावस्था, बीमारी आदि में आर्थिक सहायता का प्रबन्ध करना, 
  6. कृषि की वैज्ञानिक साधनों से उन्नति करना आदि. 

2. लोकहित सम्बन्धी – 

  1. हानिकारक और नशीली वस्तुओं पर प्रतिबंध लगाना, 
  2. पशुओं की नस्ल सुधारना, 
  3. दुधारू पशुओं के वध को रोकना, 
  4. सुकुमार बालकों का संरक्षण करना, 
  5. अछूतों और पिछड़ी जातियों तथा वर्गों के हितों की रक्षा करना, तथा 
  6. 14 वर्ष तक के बच्चों की निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था करना. 

3. शासन तथा न्याय सम्बन्धी – 

  1. ग्राम पंचायतों की व्यवस्था करना,
  2. कार्यपालिका और न्यायपालिका को पृथक् करने का प्रयास करना, 
  3. समस्त भारत के लिए समान विधि व कानून की व्यवस्था करना.
  4. ऐतिहासिक इमारतों के संरक्षण सम्बन्धी - राज्य द्वारा ऐतिहासिक इमारतों तथा स्मारकों आदि की सुरक्षा करना. 
  5. अन्तर्राष्ट्रीय व्यवहार सम्बन्धी - राज्य द्वारा विश्व में शान्ति स्थापित करने की ओर प्रयास करना. 
  6. अन्य - 42वें संविधान संशोधन अधिनियम ने नीतिनिर्देशक सम्बन्धी धारा 39 में संशोधन करके तीन नये निर्देशक तत्व सम्मिलित किए हैं. ये इस प्रकार हैं: 

(i) आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग को निःशुल्क कानूनी सहायता, 

(ii) किसी उद्योग में लगे हुए संगठनों के सम्बन्ध में कर्मचारियों का भाग लेना, 

(iii) पर्यावरण की रक्षा और सुधार तथा वन और वन्य जीवों की सुरक्षा. 

86वें संविधान संशोधन अधिनियम 2002 के द्वारा नीतिनिर्देशक तत्वों में अनुच्छेद 45 में संशोधन किया गया है. पुराने की जगह नया प्रावधान इस प्रकार है 

“राज्य के सभी बच्चों को तब तक के लिए शुरूआती देखभाल और शिक्षा की व्यवस्था करने के लिए प्रयास करना होगा जब तक वह 6 वर्ष की आयु का नहीं हो जाता है.”

नागरिकों के मूल कर्त्तव्य (Fundamental Duties) [अनुच्छेद 51 A]

संविधान के 42वें संशोधन अधिनियम, 1976 के द्वारा संविधान के भाग (4) के पश्चात् एक नया भाग 4क जोड़ा गया है, जिसके द्वारा पहली बार संविधान में नागरिकों के मूल कर्त्तव्यों को समाविष्ट किया गया है. एक मूल कर्तव्य 86वें संविधान संशोधन 2002 के द्वारा जोड़ा गया. नए अनुच्छेद 51 A के अनुसार भारत के प्रत्येक नागरिक के निम्नलिखित 11 

मूल कर्तव्य होंगे- 

(a) प्रत्येक नागरिक संविधान का पालन करे और उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्र ध्वज और राष्ट्रगान का आदर करे. 

(b) स्वतन्त्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय आन्दोलनों को प्रेरित करने वाले अन्य आदर्शों को सहृदय में सँजोये रखे और उनका पालन करे. 

(c) भारत की प्रभुता, एकता और अखण्डता की रक्षा करे और उसे अक्षुण्ण बनाए रखे.

(d) देश की रक्षा करे और आह्वान किए जाने पर राष्ट्र की सेवा करे. 

(e) भारत के सभी लोगों में समानता और समान भ्रातृत्व की भावना का निर्माण करे, जो धर्म, भाषा, प्रदेश या वर्ग पर आधारित सभी भेदभावों से परे हो, ऐसी प्रथाओं का त्याग करे, जो स्त्रियों के सम्मान के विरुद्ध हों. 

(f) हमारी सामाजिक संस्कृति की गौरवशाली परम्परा का महत्व समझे तथा उसको अक्षुण्ण बनाये रखे. 

(g) प्राकृतिक पर्यावरण, जिसके अन्तर्गत वन, झील, नदी और अन्य जीव भी हैं, की रक्षा करे और उनका संवर्द्धन करे तथा प्राणिमात्र के लिए दया भाव रखें. 

(h) वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करे.

(i) सार्वजनिक सम्पत्ति को सुरक्षित रखे और हिंसा से दूर रहे. 

(j) व्यक्तिगत और सामूहिक गतिविधियों के सभी क्षेत्रों में उत्कर्ष की ओर बढ़ने का सतत प्रयास करें. निरन्तर बढ़ते हुए प्रयत्न और उपलब्धि की नई इकाई को छू ले. 755 

(k) यदि माता-पिता या संरक्षक है. 6 वर्ष से 14 वर्ष तक आयु वाले अपने, यथास्थिति, बालक या प्रतिपाल्य के लिए शिक्षा के अवसर प्रदान करें. 

"नोट - अन्तिम कर्तव्य (k) 86वें संविधान (संशोधन) अधिनियम, 2002 के द्वारा जोड़ा गया है. इस प्रकार अब नागरिकों के मूल कर्तव्यों की संख्या 10 से बढ़कर 11 हो गई है"

संघीय कार्यपालिका  (Union Executive)

संघीय कार्यपालिका राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और प्रधानमंत्री सहित मन्त्रिमण्डल से बनी होती है. 

राष्ट्रपति (The President)

निर्वाचन के लिए योग्यताएं – 

  • वह भारत का नागरिक हो, 
  • उसकी आयु 35 वर्ष से कम न हो, 
  • वह लोक सभा की सदस्यता प्राप्त करने की योग्यताएं रखता हो, 
  • वह किसी ऐसे पद पर न हो, जो संघीय अथवा किसी राज्य सरकार के अन्तर्गत लाभ प्रदान करने वाला हो, 
  • राष्ट्रपति संसद या राज्यों के विधानमण्डल के किसी सदन का सदस्य नहीं हो सकता है.

राष्ट्रपति का निर्वाचन - राष्ट्रपति का निर्वाचन अप्रत्यक्ष रूप से होता है, संसद के सदनों के निर्वाचित सदस्य और राज्य विधान सभाओं के निर्वाचित सदस्य (70वें संविधान संशोधन अधिनियम 1992 के द्वारा ‘राज्य' के अन्तर्गत दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी राज्य क्षेत्र और पांडिचेरी संघ राज्य क्षेत्र सम्मिलित हैं) मिलकर राष्ट्रपति का चुनाव करते हैं. यह चुनाव ‘एकल संक्रमणीय मत' (Single Transferable Vote) द्वारा होता है. चुनाव में 'आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली’ (System of proportional representation) अपनाई जाती है. मतदान गुप्त होता है. 

कार्यकाल - राष्ट्रपति का कार्यकाल 5 वर्ष निश्चित किया गया है. वह इस समय से पहले भी अपने पद का त्याग कर सकता है. संविधान के उल्लंघन की दशा में उसे महाभियोग के द्वारा उसके पद से हटाया भी जा सकता है. उसे पुनः निर्वाचन लड़ने का अधिकार है. 

राष्ट्रपति पर महाभियोग (Impeachment) - राष्ट्रपति को संविधान का उल्लंघन करने पर महाभियोग द्वारा उसके पद से हटाया जा सकता है (अनुच्छेद- 61). उसके विरुद्ध महाभियोग प्रस्ताव रखने का अधिकार संसद के दोनों सदनों को प्राप्त है. प्रस्ताव रखने से पूर्व तीन निम्नलिखित शर्तें पूरी होनी चाहिए: 

भारत का संविधान सामान्य ज्ञान (Preamble to the Constitution in Hindi)

(अ) इस प्रस्ताव की सूचना 14 दिन पूर्व दी जानी चाहिए, 

(ब) इस प्रस्ताव की सूचना पर सदन के कुल सदस्यों के एक-चौथाई (1/4) सदस्यों के हस्ताक्षर होने चाहिए, 

(स) उस सदन के सदस्यों की कुल संख्या के 2/3 बहुमत द्वारा इसका स्वीकार होना अनिवार्य है. 

इस प्रकार से स्वीकार होने के पश्चात् यह प्रस्ताव दूसरे सदन में भेज दिया जाता है. राष्ट्रपति को अपना स्पष्टीकरण देने का अधिकार है. यदि प्रस्ताव सदन के कुल सदस्यों के 2/3 बहुमत से स्वीकार हो जाता है, तो राष्ट्रपति पर महाभियोग सिद्ध समझा जाता है और प्रस्ताव स्वीकार होने की तिथि से राष्ट्रपति को अपना पद त्यागना होता है. 

राष्ट्रपति का वेतन व भत्ते – वर्तमान में राष्ट्रपति को 1.50 लाख रु. मासिक वेतन, रहने को राष्ट्रपति भवन तथा अन्य भत्ते मिलते हैं. उसके कार्यकाल में उसके वेतन में कमी नहीं की जा सकती.

जानें - भारत के राष्ट्रपति।

राष्ट्रपति के अधिकार

राष्ट्रपति के अधिकारों को पाँच भागों में बाँटा जा सकता है: 

(1) कार्यपालिका सम्बन्धी अधिकार - शासन सम्बन्धी प्रत्येक कार्य उसके नाम से होता हैविभिन्न पदों पर नियुक्ति करने के सम्बन्ध में राष्ट्रपति को अत्यन्त व्यापक अधिकार है. वह गवर्नर, उच्च व उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश, केन्द्रीय लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष व सदस्य, एटार्नी जनरल, महालेखा परीक्षक, राजदूत, प्रधानमंत्री और प्रधानमंत्री के परामर्श से अन्य मंत्रियों की नियुक्ति करता है. वह चीफ कमिश्नरों के माध्यम से संघीय प्रदेशों पर शासन करता है. भारतीय सेना का वह सर्वोच्च सेनाध्यक्ष है.

(2) संसद और व्यवस्थापन सम्बन्धी अधिकार - राष्ट्रपति राज्य सभा हेतु बाहर से ऐसे 12 व्यक्तियों का मनोनयन करता है, जो साहित्य, विज्ञान, कला और समाज सेवा से सम्बन्धित विशेष ज्ञान अथवा व्यावहारिक अनुभव रखते हों. राष्ट्रपति व्यवस्थापन प्रणाली के संचालन हेतु नियम भी बना सकता है. वह संसद का अधिवेशन बुलाता है व उसे विसर्जित करता है. कोई भी विधेयक राष्ट्रपति की स्वीकृति के बिना कानून नहीं बन सकता है. वह (Ordinance) अध्यादेश जारी कर सकता है, जबकि संसद का अधिवेशन न चल रहा हो. 

(3) वित्तीय अधिकार - प्रतिवर्ष संसद के सम्मुख उसकी ओर से वार्षिक आय व्यय का ब्यौरा (Budget) प्रस्तुत किया जाता है. रुपये की कोई भी माँग उसकी अनुमति के बिना नहीं रखी जा सकती. वह वित्त आयोग (Finance Commission) नियुक्त करता है, जिसका कार्य संघ और राज्यों के बीच करों का उचित बँटवारा करना होता है. 

(4) न्याय सम्बन्धी अधिकार - राष्ट्रपति को क्षमा प्रदान करने, दण्ड को कुछ समय के लिए स्थगित करने, मृत्युदण्ड को आजीवन कारावास में बदलने अथवा क्षमा प्रदान करने का अधिकार प्राप्त है. 

(5) संकटकालीन परिस्थिति में राष्ट्रपति के अधिकार - संकटकालीन परिस्थिति में राष्ट्रपति को विशेष अधिकार दिए गए हैं. वह निम्न तीन प्रकार के संकटों में आपातकाल की घोषणा कर सकता है- 

  • युद्ध, आक्रमण अथवा आन्तरिक अशान्ति से उत्पन्न संकटकालीन अवस्था (अनुच्छेद 352). 
  • राज्यों में वैधानिक संकट से उत्पन्न संकटकालीन परिस्थिति (अनुच्छेद 356). 
  • आर्थिक संकटकालीन व्यवस्था (अनुच्छेद 360). 

उपर्युक्त तीनों अवस्थाओं में राष्ट्रपति मूलाधिकारों (अनुच्छेद 20 और अनुच्छेद 21 छोड़कर) को निलम्बित कर सकता है. 

38वें संविधान संशोधन अधिनियम (1974) के अनुसार आपातकालीन स्थिति की घोषणा को किसी भी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती है.

42वें संविधान (संशोधन अधिनियम के अनुसार राष्ट्रपति को देश के किसी भी भाग में सुरक्षा की दृष्टि से आपातस्थिति लागू करने का अधिकार प्रदान किया गया है) केन्द्र सरकार को किसी भी राज्य में कानून व्यवस्था की गम्भीर स्थिति पर नियंत्रण पाने के लिए केन्द्रीय सशस्त्र बल भेजने का अधिकार देने का प्रावधान किया गया है. यह सशस्त्र बल राज्य सरकार के नियंत्रण में नहीं होगा और केवल केन्द्र सरकार के निर्देशों का पालन करेगा. 

नोट- यह ध्यान रहे कि भारत के राष्ट्रपति की स्थिति ब्रिटेन के राजा की भाँति है. वह उपर्युक्त अधिकारों का उपयोग प्रधानमंत्री के परामर्श पर ही कर सकता है. 42वें संविधान (संशोधन) अधिनियम में यह व्यवस्था स्पष्ट रूप से जोड़ दी गई है कि राष्ट्रपति केन्द्रीय मंत्रिमण्डल के परामर्श के अनुसार कार्य करने को बाध्य होगा.

उपराष्ट्रपति (Vice President)

संविधान के अनुच्छेद 63 में उपराष्ट्रपति का उल्लेख किया गया है. उपराष्ट्रपति के पद के लिए भी वे ही योग्यताएं अनिवार्य हैं. जो राष्ट्रपति पद के लिए होती हैं. 

कार्यकाल - उपराष्ट्रपति 5 वर्ष के लिए चुना जाता है. यदि राज्य सभा अपने सदस्यों के बहुमत से उसे पदच्युत करने का प्रस्ताव पास कर दे और लोक सभा उसे स्वीकार कर ले तो उपराष्ट्रपति को अपना पद छोड़ना होगा. इस प्रकार के प्रस्ताव को प्रस्तुत करने के लिए 14 दिन पूर्व सूचना देना आवश्यक है.

उपराष्ट्रपति के अधिकार - उपराष्ट्रपति राज्य सभा का पदेन सभापति होता है. उपराष्ट्रपति को राज्य सभा के सभापति के रूप में 1-25 लाख रुपए प्रतिमाह वेतन व अन्य भत्ते मिलते हैं. राष्ट्रपति की अनुपस्थिति में उपराष्ट्रपति उसका पद सँभालेगा और उसके पद से सम्बन्धित कार्यों का सम्पादन करेगा. उपराष्ट्रपति अधिक-से-अधिक केवल 6 माह के लिए राष्ट्रपति का कार्य सँभाल सकता है. इस बीच नये राष्ट्रपति का चुनाव हो जाना अनिवार्य है. अब उपराष्ट्रपति पद हेतु पेंशन की भी व्यवस्था कर दी गई है. 

राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति की अनुपस्थिति में उच्चतम न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश राष्ट्रपति का कार्यभार सँभालता है.

पढ़ें- भारत के उपराष्ट्रपति की सूची।

मंत्रिमण्डल (Cabinet)

राष्ट्रपति को उसके दैनिक कार्यों में सहायता व मन्त्रणा देने के लिए संविधान के अनुच्छेद 74 के द्वारा एक मन्त्रिमण्डल की व्यवस्था की गई है, जिसका प्रधान प्रधानमंत्री कहलाता है. सैद्धांतिक दृष्टि से मंत्रिमण्डल एक परामर्शदात्री समिति है, परन्तु व्यवहार में वह देश की वास्तविक कार्यपालिका है. 42वें संविधान (संशोधन) अधिनियम के अनुसार राष्ट्रपति केन्द्रीय मंत्रिमण्डल के परामर्श के अनुसार कार्य करने को बाध्य होगा. 

राष्ट्रपति प्रधानमंत्री को नियुक्त करता है और उसके परामर्श से अन्य मंत्रियों को नियुक्त करता है. लोक सभा में जिस दल को बहुमत प्राप्त होता है, उसके नेता को संघात्मक प्रणाली की प्रथानुसार (राष्ट्रपति को) प्रधानमंत्री नियुक्त करना पड़ता है.

मंत्रिमण्डल के कार्य - संघीय नीति निर्माण का उत्तरदायित्व मंत्रिमण्डल का ही है. विधि निर्माण से भी उसका गहरा सम्बन्ध है. वही सरकारी विधेयकों को संसद में प्रस्तुत करता है. विधि निर्माण का कार्यक्रम उसी के द्वारा निश्चित किया जाता है. वित्तीय नीति का निर्धारण करना भी मंत्रिमण्डल का कार्य है. समस्त अर्थ सम्बन्धी विधेयक मंत्रियों के द्वारा ही संसद में प्रस्तुत किए जाते हैं.

प्रधानमंत्री (Prime Minister)

संविधान के अनुच्छेद 74 (1) में प्रधानमंत्री के पद की व्यवस्था की गई है. प्रधानमंत्री मंत्रिमण्डल का प्रधान होता है. संविधान के अनुसार प्रधानमंत्री राष्ट्रपति का परामर्शदाता है. वह मंत्रिमण्डल तथा राष्ट्रपति के बीच की कड़ी है. अनुच्छेद 78 (क) के अनुसार उसका कर्त्तव्य है कि वह संघीय शासन से सम्बन्धित मंत्रिमण्डल के समस्त निर्णयों तथा व्यवस्थापन सम्बन्धी प्रस्तावों की सूचना राष्ट्रपति को दे. वह अपने साथियों में विभागों का वितरण करता है. अनेक मन्त्रालयों की नीतियों का समन्वय भी वही करता है. वह लोक सभा का नेता होता है. प्रधानमन्त्री ही राष्ट्रपति को लोक सभा भंग करने का परामर्श देता है. राष्ट्रपति राष्ट्र के उच्च पदों पर नियुक्तियाँ भी प्रधानमन्त्री के परामर्श से ही करता है.

संसद (Parliament)

संसद केन्द्रीय व्यवस्थापिका सभा है, जो राष्ट्रपति तथा दो सदनों से मिलकर बनती है. प्रथम सदन लोक सभा और द्वितीय सदन राज्य सभा कहलाता है.

लोक सभा

संविधान के अनुच्छेद 81 के अनुसार लोक सभा के सदस्यों की संख्या 500 निश्चित की गई थी, जिसमें 25 सदस्यों की व्यवस्था केन्द्रशासित प्रदेशों के लिए थी, किन्तु एक संविधान (संशोधन) अधिनियम के द्वारा लोक सभा में राज्यों के प्रतिनिधियों की संख्या 500 से बढ़ाकर 530 कर दी गई है और संघीय प्रदेशों की सदस्य संख्या 25 से घटाकर 20 गई है. इसके अतिरिक्त अनुच्छेद 331 के अन्तर्गत राष्ट्रपति 2 सदस्य एंग्लो इण्डियन समुदाय के लोक सभा के लिए मनोनीत कर सकता है. इस समुदाय को भली-भाँति प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाता है. इस प्रकार लोक सभा के सदस्यों की अधिकतम संख्या 552 होगी. सदस्यों का चुनाव जनता प्रत्यक्ष रूप से करती है. चुनाव वयस्क मताधिकार के आधार पर होता है. अब प्रत्येक वह व्यक्ति जिसकी आयु 18 वर्ष या इससे अधिक है, चुनाव में मतदान कर है. चुनाव के लिए जनसंख्या के आधार पर सम्पूर्ण देश को निर्वाचन क्षेत्रों में विभक्त कर दिया गया है. 

लोक सभा सदस्य निर्वाचित होने के लिए व्यक्ति में निम्नलिखित योग्यताएँ होनी आवश्यक हैं: 

(1) वह भारत का नागरिक हो. 

(2) उसकी आयु 25 वर्ष से कम न हो.

(3) भारत सरकार अथवा किसी राज्य सरकार के अन्तर्गत वह किसी लाभ के पद को धारण न किये हुए हो. 

(4) वह किसी न्यायालय द्वारा पागल न ठहराया गया हो. 

(5) वह दिवालिया घोषित न किया गया हो. 

मौलिक संविधान में लोक सभा का कार्यकाल 5 वर्ष था. 42वें संविधान (संशोधन) अधिनियम के द्वारा कार्यकाल 5 वर्ष से बढ़ाकर 6 वर्ष कर दिया था, किन्तु जनता पार्टी ने पुनः संविधान में 34वाँ संशोधन पारित करके लोक सभा का कार्यकाल 5 वर्ष ही कर दिया. राष्ट्रपति इसे इस काल की समाप्ति के पूर्व भी भंग कर सकता है.

राज्य सभा राज्य सभा में अधिक-से-अधिक 250 सदस्य हो सकते हैं. इन सदस्यों में 238 निर्वाचित और 12 मनोनीत सदस्य होते हैं. राज्य सभा के सदस्यों का निर्वाचन अप्रत्यक्ष रूप से होता है. उन्हें राज्यों की विधान सभाओं के निर्वाचित सदस्य एकल संक्रमणीय मत (Single Transferable Vote) के आधार पर आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली से चुनते हैं. राष्ट्रपति साहित्य, कला, विज्ञान तथा समाज सेवा के क्षेत्रों में से 12 प्रमुख व्यक्तियों को राज्य के सदस्यों के रूप में मनोनीत करता है.

 राज्य सभा के सदस्यों की कुछ योग्यताएँ तो लोक सभा के सदस्यों की योग्यताओं के समान ही निर्धारित हैं. अन्तर केवल इतना है कि राज्य सभा का सदस्य बनने के लिए व्यक्ति की आयु 30 वर्ष या इससे अधिक होनी आवश्यक है. 

राज्य सभा स्थायी संस्था है, यह कभी भंग नहीं होती. इसके एक-तिहाई सदस्य प्रत्येक दूसरे वर्ष अपना स्थान रिक्त कर देते हैं और इनके स्थान पर नये प्रतिनिधि चुन लिए जाते हैं. राज्य सभा का सभापति पदेन उपराष्ट्रपति होता है.

संसद के कार्य तथा अधिकार

संसद उन सभी विषयों पर विधि निर्माण कर सकती है जो संघीय सूची में दिये गये हैं. इसके अतिरिक्त उन विषयों पर भी संसद विधि निर्माण कर सकती है, जो समवर्ती सूची में दिये हुए हैं. संकटकालीन परिस्थिति में संसद राज्यों की सूची में दिये हुए विषयों पर भी विधि निर्माण कर सकती है. संसद संविधान में संशोधन कर सकती है. संसद को बजट पास करने का अधिकार है. संसद के सदस्य राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के निर्वाचन में भाग लेते हैं. महाभियोग के द्वारा राष्ट्रपति को पदच्युत किया जा सकता है. संसद प्रश्नों, स्थगन प्रस्ताव, विधेयक, नीति की अस्वीकृति कटौती प्रस्ताव तथा अविश्वास प्रस्ताव के द्वारा कार्यपालिका पर नियंत्रण रखती है. संकटकालीन परिस्थिति की घोषणा को संसद के द्वारा ही स्वीकृत किया जाना आवश्यक है.  

दोनों सदनों में सम्बन्ध - राज्य सभा का स्थान लोक सभा से नीचा है. राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति के चुनाव, संविधान संशोधन, न्यायाधीशों व राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति को पदच्युत करने सम्बन्धी विषयों में दोनों सदनों का स्तर समान है, परन्तु विधि-निर्माण के क्षेत्र में राज्य सभा का स्थान नीचा है. वित्त विधेयक तो केवल लोक सभा में ही प्रस्तुत कियेकिये जा सकते हैं. साधारण विधेयकों पर विचार हेतु आहूत संयुक्त बैठक में लोक सभा का बहुमत होने के कारण उसके मत की ही मान्यता होती है. मंत्रिमण्डल केवल लोक सभा के प्रति ही उत्तरदायी है, किन्तु अनुच्छेद 249 के अनुसार यदि राज्य सभा अपने दो-तिहाई मत से यह प्रस्ताव पारित कर देती है कि राज्यों का अमुक विषय राष्ट्रीय महत्व का हो गया है, तो उस दशा में उस राज्य के विषय पर भी संसद को विधि निर्माण करने का अधिकार प्राप्त हो जाता है. अतः इस क्षेत्र में राज्य सभा की स्थिति लोक सभा की स्थिति से बेहतर है.

पढ़ें- लोकसभा से सम्बंधित महत्वपूर्ण प्रश्न।

सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court)

भारतीय संविधान में उच्चतम न्यायालय (Supreme Court) की व्यवस्था है, जो देश का अन्तिम न्यायालय है. उच्चतम न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश और 14 अन्य न्यायाधीश हो सकते थे. बाद में किए गए एक संविधान संशोधन से इस संख्या को बढ़ाकर 18 कर दिया गया. एक अन्य विधेयक पारित कर कुल न्यायाधीशों की संख्या 26 (मुख्य न्यायाधीश सहित) कर दी गई. वर्तमान में मुख्य न्यायाधीश सहित 31 न्यायाधीश हैं. मुख्य न्यायाधीश और अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है.

उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश 65 वर्ष की आयु तक अपने पदों पर कार्य करते हैं. इससे पूर्व वे या तो त्यागपत्र देकर या संसद की प्रार्थना पर राष्ट्रपति द्वारा महाभियोग लगाकर हटाये जा सकते हैं. मुख्य न्यायाधीश को 1 लाख रुपए मासिक और अन्य न्यायाधीशों को 90,000 रुपए मासिक वेतन मिलता है. उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश बनने के लिए निम्नलिखित योग्यताएँ होनी आवश्यक है:

(1) वह भारत का नागरिक हो, और 

(2) भारत के किसी एक या एक से अधिक उच्च न्यायालयों में कम-से-कम 5 वर्ष तक न्यायाधीश रह चुका हो या उसने भारत के किसी उच्च न्यायालय में कम-से-कम 10 वर्ष तक वकालत की हो या वह राष्ट्रपति की दृष्टि में कानून का उच्चकोटि का ज्ञाता हो. 

उच्चतम न्यायालय के तीन क्षेत्राधिकार हैं- 

(क) प्रारम्भिक 

(ख) अपीलीय 

(ग) परामर्श का.

प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत राज्यों और संघ के अलावा राज्यों के अन्य संवैधानिक विवादों से सम्बद्ध मामले आते हैं. 

अपीलीय क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत उच्च न्यायालय द्वारा प्रमाणित सारगर्भित दीवानी के मामले तथा फौजदारी के मामले, जिनमें उच्च न्यायालय ने कारावास के दण्ड को बदलकर मृत्यु दण्ड कर दिया हो तथा स्वयं उच्च न्यायालय द्वारा अनुमोदित किए गए मामले आते हैं. 

परामर्श क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत राष्ट्रपति किसी भी विषय पर उच्चतम न्यायालय से परामर्श ले सकता है.

आदेश (Writ) जारी करने का अधिकार 

उच्चतम न्यायालय नागरिकों के मूल अधिकारों की रक्षा के लिए आदेश (Writ) जारी कर सकता है. साधारणतः उच्चतम न्यायालय पाँच प्रकार के आदेश जारी कर सकता है. ये हैं- 

(1) बन्दी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Corpus), 

(2) परमादेश (Mandamus), 

(3) प्रतिषेध (Prohibition), 

(4) अधिकारपृच्छा (Quo-warranto), (5) उत्प्रेषण (Certiorari).

नोट - 42वें संविधान (संशोधन) अधिनियम में यह व्यवस्था की गई थी कि उच्चतम न्यायालय ही केन्द्रीय कानूनों की वैधता पर विचार कर सकता है, किन्तु साथ ही उच्चतम न्यायालय को उच्च न्यायालयों से ऐसे मामले मँगाने का अधिकार दिया गया है, जिनमें कोई समान महत्व का मामला हो, जो उच्च न्यायालयों में चल रहा हो. 

42वें संविधान संशोधन अधिनियम में किए गए एक अन्य प्रावधान के अनुसार किसी भी केन्द्रीय या राज्य कानून की वैधता पर विचार करने के लिए उच्चतम न्यायालय से कम से-कम 5 न्यायाधीशों की बैंच आवश्यक होगी और कोई कानून असंवैधानिक घोषित करने के लिए बैंच को दो-तिहाई बहुमत की आवश्यकता होगी.

किन्तु 43वें संविधान (संशोधन) अधिनियम 1977 के द्वारा उच्चतम न्यायालय की मौलिक स्थिति को पुनः यथावत् कर दिया गया. उच्चतम न्यायालय को अब राज्य के कानूनों को अवैध घोषित करने का अधिकार पुनः मिल गया है, यह शक्ति उससे 42वें संविधान संशोधन द्वारा छीन ली गई थी.

उच्च न्यायालय (अनुच्छेद-214) (High Court)

भारतीय संविधान में प्रत्येक राज्य के लिए उच्च न्यायालय की व्यवस्था की गई है, जिनमें प्रत्येक में एक मुख्य न्यायाधीश एवं कुछ अन्य न्यायाधीश होते हैं, जिन्हें राष्ट्रपति समय-समय पर आवश्यकतानुसार नियुक्त करता है. संविधान में उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की कोई अधिकतम सीमा निर्धारित नहीं की गई है. राष्ट्रपति मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति भारत के उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एवं सम्बन्धित राज्य के राज्यपाल की सम्मति से करता है. राज्य के अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति के सम्बन्ध में राष्ट्रपति, उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एवं उस राज्य के राज्यपाल के अतिरिक्त उस राज्य के मुख्य न्यायाधीश की सम्मति भी लेता है. प्रत्येक न्यायाधीश 62 वर्ष की आयु तक अपने पद पर रह सकता है. 

इससे पूर्व वह त्यागपत्र देकर या संसद के दो-तिहाई बहुमत की प्रार्थना पर अयोग्यता या दुराचार के आरोप पर हटाया जा सकता है. मुख्य न्यायाधीश को 90,000 रुपए और अन्य न्यायाधीशों को 80,000 रुपए मासिक वेतन मिलता है.

उच्च न्यायालय के न्यायाधीश का पद ग्रहण करने के लिए व्यक्ति में निम्नलिखित योग्यताओं का होना आवश्यक है: 

(1) वह भारत का नागरिक हो, 

(2) वह कम-से-कम 10 वर्ष तक भारत में न्याय सम्बन्धी किसी पद पर कार्य कर चुका हो या 

(3) राज्यों के उच्च न्यायालयों में कम-से-कम 10 वर्ष तक अधिवक्ता (Advocate) रह चुका हो. 

उच्च न्यायालय का अधिकार क्षेत्र दो तरह का है: (1) प्रारम्भिक या मूल अधिकार क्षेत्र (2) अपीलीय.

प्रारम्भिक अधिकार क्षेत्र – 

(1) ऐसे दीवानी के मामले जो खफीफा की अदालत में प्रस्तुत नहीं हो सकते, 

(2) ऐसे फौजदारी सम्बन्धी मामले जिनका निर्णय सेशन्स जज की अदालत में न हो सके, 

(3) मूलाधिकार सम्बन्धी मामले, 

(4) संविधान सम्वन्धी मामले. 

अपीलीय अधिकार क्षेत्र – 

(1) दीवानी मामलों की अपील, 

(2) फौजदारी मामलों की अपील. 

नोट - 42वें संविधान (संशोधन) अधिनियम के अनुसार केन्द्रीय कानूनों की संवैधानिकता पर राज्यों के उच्च न्यायालय विचार नहीं कर सकेंगे. उच्च न्यायालय को केवल राज्य के कानूनों की वैधता पर विचार करने का अधिकार होगा, किन्तु इसके लिए कम-से-कम 5 न्यायाधीशों की बैंच द्वारा विचार करना होगा और दो-तिहाई बहुमत से ही कानून को अवैध घोषित किया जा सकेगा.

43वें संविधान संशोधन अधिनियम 1977 ने उच्च न्यायालय की मौलिक स्थिति यथावत् कर दी है. अब उच्च न्यायालय केन्द्रीय कानूनों की संवैधानिकता पर भी विचार करने के लिए सक्षम है. 

42वें संविधान संशोधन अधिनियम के अनुसार ही संविधान के अनुच्छेद 226 में संशोधन करके उच्च न्यायालय द्वारा किसी व्यक्ति की रिट याचिका पर सुनवाई के अधिकार को सीमित किया गया है. ऐसी याचिका पर अन्तिम निषेधाज्ञा जारी करने से पहले दूसरे पक्ष को सुनवाई का अवसर देना होगा. 

भारत के उच्च न्यायालय - भारत में उच्च न्यायालयों की संख्या 21 + 3 = 24 है. सर्वप्रथम 1862 में मुम्बई, कोलकाता व चेन्नई (मद्रास) उच्च न्यायालयों की स्थापना हुई थी. मार्च 2013 में अगरतला (त्रिपुरा), शिलांग (मेघालय), इम्फाल (मणिपुर) में तीन नए उच्च न्यायालय स्थापित किए गए.

लोक सभा या विधान सभा का अध्यक्ष

अध्यक्ष सदन का सभापतित्व करता है. उसको सदन के सदस्य अपने में से ही चुनते हैं. उसको 14 दिन का नोटिस देकर सदन के बहुमत द्वारा हटाया जा सकता है. 

उसके कार्य तथा अधिकार – 

(1) वह सदन में अनुशासन स्थापित करता है तथा सदन के नियमों और गौरव की रक्षा करता है. 

(2) वह वक्ताओं को बोलने का अवसर देता है. 

(3) वह विधेयकों तथा अन्य विषयों पर मतदान कराता है. उसे निर्णायक मत (Casting Vote) देने का अधिकार है. 

(4) वह नियमों की व्याख्या करता है. 

(5) बिना अध्यक्ष की आज्ञा के सदन का कोई भी सदस्य संसद के क्षेत्र में बन्दी नहीं बनाया जा सकता और पुलिस भी बिना उसकी आज्ञा के इस क्षेत्र में प्रवेश नहीं कर सकती है. 

(6) अध्यक्ष ही यह निश्चय करता है कि कोई विधेयक धन विधेयक है या नहीं. 

(7) वह संसद की समितियों पर नियंत्रण रखता है एवं उनके चेयरमैनों को नियुक्त करता है. 

(8) वह संसद और कार्यपालिका के बीच कड़ी का कार्य करता है.

संसद सदस्यों के विशेषाधिकार

विचार व्यक्त करने की स्वतंत्रता - संसद के सदस्यों पर संसद या उसकी समिति में दिए हुए किसी भाषण के लिए मुकदमा नहीं चलाया जा सकता.

बन्दी बनाए जाने से स्वतन्त्रता - बिना अध्यक्ष की आज्ञा के सदन के किसी भी सदस्य को संसद के क्षेत्र में वन्दी नहीं बनाया जा सकता. 

प्रकाशन की स्वतन्त्रता - संसद की किसी रिपोर्ट या कार्यवाही प्रकाशित करने के लिए सदस्य दण्डनीय नहीं हैं. 44वें संविधान संशोधन के द्वारा अब सदन की कार्यवाहियों के प्रकाशन के अधिकार को संवैधानिक संरक्षण प्रदान कर दिया गया है.

राज्य की कार्यपालिका 

राज्यपाल (The Governor)

भारतीय संविधान में प्रत्येक राज्य के लिए एक राज्यपाल (Governor) की व्यवस्था की गई है. उसकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है. राज्यपाल में राज्यों की कार्यपालिका सम्बन्धी शक्तियाँ निहित हैं. उनका उपयोग वह स्वयं या अपने अधीनस्थ मन्त्रियों के द्वारा करता है.

राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति 5 वर्ष की अवधि के लिए करता है. भारत का प्रत्येक नागरिक जो 35 वर्ष की आयु पूर्ण कर चुका हो, जो किसी भी विधान मण्डल का सदस्य न हो और शासन में कोई लाभ का पद ग्रहण न किए हुए हो, राज्यपाल नियुक्त किया जा सकता है. राज्यपाल को 1.10 लाख रुपए मासिक वेतन, अन्य भत्ते और निवास स्थान मिलता है.

राज्यपाल के अधिकार और कर्त्तव्य-

(1) कार्यपालिका सम्बन्धी - राज्य का शासन उसी के नाम से चलता है. वह मुख्यमंत्री तथा अन्य मन्त्रियों, राज्य लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष और सदस्यों, विधान परिषद् के 1/6 सदस्यों और अन्य बड़े-बड़े अधिकारियों की नियुक्ति करता है. 

(2) व्यवस्थापन सम्बन्धी - राज्यपाल विधान मण्डल की बैठकों को बुलाता है, स्थगित और विघटित करता है. वह विधान मण्डल में भाषण दे सकता है और सन्देश भेज सकता है. कोई भी विधेयक तब तक कानून नहीं बन सकता, जब तक कि राज्यपाल उस पर अपनी स्वीकृति न दे. विधान मण्डल के अवकाश काल में वह अध्यादेश जारी कर सकता है. 

(3) वित्त सम्बन्धी - वार्षिक बजट उसी की आज्ञा से राज्य विधान मण्डल में प्रस्तुत किया जाता है. 

(4) न्याय सम्बन्धी - राज्यपाल अपराधियों की सजा को कम कर सकता है तथा उन्हें क्षमा भी कर सकता है. 

उसको यह अधिकार उन्हीं विषयों तक सीमित है, जो राज्य सूची में आते हैं.

(5) आपातकाल सम्बन्धी - वैधानिक रूप से शासन चलाने की सम्भावना न होने पर राष्ट्रपति को आपातकाल घोषित करने का परामर्श दे सकता है. 

(6) राज्यपाल के अपने विवेक पर आधारित अधिकार - राज्यपाल अधिकतर कार्य मन्त्रि मण्डल के परामर्श से करता है, किन्तु निम्नलिखित कार्य ऐसे हैं, जिनको वह स्वयं अपने विवेक के आधार पर कर सकता है:

(1) विधेयकों की स्वीकृति देने में 

(2) विधान सभा भंग करने में 

(3) मुख्यमंत्री की नियुक्ति करने में, जबकि विधान सभा में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत न मिला हो. यह राज्यपाल ही तय करता है कि क्या राज्य का शासन संविधान के अनुसार चलाया जा सकता है या नहीं?

मुख्यमंत्री (Chief Minister)

राज्यपाल उस व्यक्ति को मुख्यमंत्री नियुक्त करता है, जिसको विधान सभा के बहुमत का समर्थन प्राप्त हो. इस प्रकार नियुक्त हुए व्यक्ति को राज्य व्यवस्थापिका का सदस्य होना चाहिए या नियुक्ति से छः महीने के अन्दर सदस्य हो जाना चाहिए. मुख्यमंत्री के अधिकार और कर्त्तव्य लगभग प्रधानमंत्री के समान ही हैं, अंतर केवल इतना है कि उसके अधिकार और कर्त्तव्य राज्य शासन तक ही सीमित हैं.

राज्यों के विधान मण्डल (The State Legislatures)

कुछ राज्यों में एकसदनीय व्यवस्थापिका या विधान मण्डल हैं, जबकि कुछ राज्यों में द्वि सदनीय. जिनमें द्विसदनीय व्यवस्था है, उनमें निम्न सदन को विधान सभा और उच्च सदन को विधान परिषद् कहा जाता है. 

बिहार, महाराष्ट्र, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, जम्मू-कश्मीर एवं आन्ध्र प्रदेश में दो सदनों की व्यवस्था है. शेष राज्यों में एकसदनीय व्यवस्था है.

विधान सभा (Legislative Assembly)

विधान सभा में संविधान के अनुसार अधिक-से-अधिक 500 और कम से कम 60 सदस्य हो सकते हैं. सदस्यों का चुनाव वयस्क मताधिकार के आधार पर होता है. विधान सभा का सामान्य रूप से कार्यकाल 5 वर्ष का था. 42वें संविधान (संशोधन) अधिनियम ने कार्यकाल 5 वर्ष से बढ़ाकर 6 वर्ष कर दिया था. 

7 अप्रैल, 1977 को 43वें संशोधन द्वारा संविधान के अनुच्छेद 83 व 172 में संशोधन करके राज्य विधान सभाओं का कार्यकाल पुनः घटाकर 5 वर्ष कर दिया गया. 

विधान सभा अपने सदस्यों में से एक सदस्य को अध्यक्ष (Speaker) एवं एक को उपाध्यक्ष (Deputy Speaker) निर्वाचित करती है.

विधान परिषद् (Legislative Council)

विधान परिषद् एक स्थायी संस्था है, जिसमें अधिक-से-अधिक विधान सभा के 1/3 सदस्य या कम-से-कम 40 सदस्य हो सकते हैं. इसका चुनाव अप्रत्यक्ष रूप से 1/3 विधान सभा सदस्यों के द्वारा 1/3 स्थानीय संस्थाओं के द्वारा, 1/12 स्नातकों के द्वारा एवं 1/12 अध्यापकों के द्वारा होता है. शेष 1/6 सदस्यों को राज्यपाल उन लोगों में से मनोनीत करता है, जो साहित्य, विज्ञान, कला, सहकारिता और सामाजिक जीवन के क्षेत्र में विशेष ख्याति रखते हों. सब निर्वाचक मण्डलों में निर्वाचन आनुपातिक प्रतिनिधित्व के आधार पर संक्रमणीय पद्धति के अनुसार होता है. विधान परिषद् के 1/3 सदस्य प्रत्येक दूसरे वर्ष अवकाश ग्रहण करते हैं.

विधानमण्डल के कार्य एवं शक्तियाँ - राज्य विधानमण्डल निम्नलिखित कार्य करता है : 

(1) राज्य सूची और समवर्ती सूची के विषय में कानून बनाना. 

(2) राज्य के वार्षिक बजट को स्वीकृत करना. 

(3) राज्य की मन्त्रिपरिषद् पर नियंत्रण रखना. 

राज्य के दोनों सदनों में विधान सभा अधिक शक्तिशाली है. वित्त विधेयक प्रथम बार विधान सभा में ही प्रस्तुत किए जा सकते हैं. विधानपरिषद् को पारित विधेयकों पर अनुशंसा करने के लिए केवल 14 दिन का समय दिया जाता है. साधारण विधेयक के सम्बन्ध में भी विधानपरिषद् अधिक-से-अधिक चार महीने तक का विलम्ब कर सकती है, परन्तु विधेयक को पारित होने से नहीं रोक सकती.

भारत का नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक (Comptroller and Auditor General of India)

कम्पट्रोलर और ऑडीटर जनरल की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है. वह संघ और राज्यों के लेखों (Accounts) पर नियंत्रण रखता है और यह देखता है कि संसद और विधान मण्डलों के द्वारा पारित व्यय से कहीं अधिक व्यय तो नहीं हो रहा है. वह राष्ट्रपति और राज्यपाल को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करता है. नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक की पदावधि छः वर्ष या 65 वर्ष की आयु प्राप्त कर लेने तक, जो भी पूर्व हो, होती है.

भारत का महान्यायवादी (Attorney General of India)

भारत की सर्वोच्च न्याय प्रणाली के अन्तर्गत एक महान्यायवादी (Attorney General) को नियुक्त किया जाता है. उस पद पर आसीन होने वाले व्यक्ति की योग्यता सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के समकक्ष होनी चाहिए. महान्यायवादी राष्ट्रपति तथा संघीय सरकार को संवैधानिक तथा कानूनी विषयों पर परामर्श देता है. उसे कानून के विषय में संसद के दोनों सदनों में अपनी राय प्रकट करने का अधिकार है. वह संसद की समितियों में भी भाग ले सकता है, परन्तु उसे मतदान का अधिकार नहीं है.

लोक सेवा आयोग ( अनुच्छेद-315-323) (Public Service Commission)

भी संघ और राज्य दोनों में लोक सेवा आयोग होते हैं. दो या दो से अधिक राज्य मिलकर एक लोक सेवा आयोग की स्थापना कर सकते हैं. प्रत्येक लोक सेवा आयोग में एक  अध्यक्ष और अन्य सदस्य होते हैं जिनकी नियुक्ति संघ में राष्ट्रपति और राज्यों में राज्यपाल द्वारा की जाती है. वैसे तो प्रत्येक सदस्य का कार्यकाल 6 वर्ष का है, परन्तु राज्यों में आयु 60 वर्ष से बढ़ाकर 62 वर्ष कर दी गई है ( देखिए 41वां संविधान संशोधन अधिनियम 1976). राज्य में 62 वर्ष और संघ में 65 वर्ष की आयु के पश्चात् कोई व्यक्ति उसका सदस्य नहीं हो सकता.

इससे पूर्व यदि न्यायालय में उसका कोई दुराचार सिद्ध हो जाए या वह दिवालिया, पागल, शारीरिक या मानसिक रूप से दुर्बल सिद्ध हो तो राष्ट्रपति उसे अपने आदेश से पदच्युत कर सकता है. आयोग के सदस्य स्वतन्त्रता एवं निष्पक्षता से काम करें, इसके लिए संविधान में प्रावधान है. 

लोक सेवा आयोग के कार्य - इसका मुख्य कार्य अनेक राजकीय सेवाओं में नियुक्ति के लिए परीक्षा का संचालन करना और साक्षात्कार करना है. इसके अतिरिक्त लोक सेवा आयोग से निम्नलिखित बातों में परामर्श लिया जाता है :=

(1) कर्मचारियों की नियुक्ति, पदोन्नति, स्थानान्तरण, पेन्शन आदि. 

(2) प्रतियोगिता परीक्षाओं के लिए पाठ्यक्रम तैयार करना. 

(3) सभी अनुशासन सम्बन्धी मामले, जोकि राजकीय सेवा में लगे हुए व्यक्तियों से सम्बन्धित हैं.

निर्वाचन आयोग (Election Commission)

संविधान के अनुच्छेद 324 में एक निर्वाचन आयोग की व्यवस्था की गई है. संसद, विधान मण्डल, राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के निर्वाचन का नियंत्रण निर्वाचन आयोग करता है. इसका गठन राष्ट्रपति द्वारा किया जाता है. इसका प्रधान मुख्य निर्वाचन आयुक्त होता है, इसकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है. साथ ही इसे अपने पद से उसी प्रक्रिया के द्वारा हटाया जा सकता है, जिस प्रकार की प्रक्रिया से उच्चतम न्यायालय का कोई न्यायाधीश हटाया जा सकता है.

संघ और राज्यों के बीच सम्बन्ध (Centre-State Relations)

संविधान के अनुच्छेद 248 से 263 तक केन्द्र और राज्यों के सम्बन्धों की विस्तृत व्याख्या की गई है. इन सम्बन्धों को तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है : 

(1) विधायी सम्बन्ध (Legislative Relations) - संघ और राज्यों की सरकारों के बीच विधि निर्माण विभाजन स्पष्ट रूप से कर दिया गया है. सभी विषयों को तीन सूचियों में विभाजित किया गया है संघ सूची, समवर्ती सूची और राज्य सूची. 

संघ सूची में 98 विषय हैं, जिनके सम्बन्ध में कानून बनाने का अधिकार केवल संसद को ही है. समवर्ती सूची में 47 विषय दिये गये हैं, जिन पर राज्य और संघ दोनों कानून बना सकते हैं. राज्य कोई विधि, संघ विधि के अनुकूल या विपरीत नहीं बना सकते. राज्य सूची में 66 विषय हैं. इन विषयों पर राज्यों के विधानमण्डलों को विधि बनाने का अधिकार है. तीनों सूचियों के विषयों के अतिरिक्त अन्य विषयों (अवशिष्ट) पर संसद ही कानून वना सकती है.

राष्ट्रीय हित में राज्य सूची में अंकित विषयों पर भी संसद को विधि बनाने का अधिकार है, यदि राज्य सभा के दो-तिहाई सदस्य इस कार्य के लिए अपनी स्वीकृति दे दें. आपातकाल में भी यह अधिकार संसद को ही प्राप्त हो जाता है. यदि दो या दो से अधिक राज्य, संसद से इस बात की प्रार्थना करें कि वह राज्य के किसी विषय पर कानून बनाए तो संसद उस विषय पर कानून बना सकती है. समवर्ती सूची के विषयों में से यदि केन्द्र और राज्य दोनों एक ही विषय पर कानून बना देते हैं और यदि वे एक-दूसरे के विरोधी होते हैं, तो केन्द्र का कानून प्रभावी होगा.

(2) प्रशासनिक सम्बन्ध (Administrative Relations) - संविधान में कहा गया है कि राज्य अपनी कार्यपालिका शक्ति का उपयोग इस प्रकार करेंगे कि संसद द्वारा बनाये गये कानून को क्षति न पहुँचे. साथ ही साथ संघीय सरकार रेलों, हवाई अड्डों और दूसरे राष्ट्रीय महत्व के साधनों की रक्षा के लिए भी राज्यों को आदेश दे सकती है. 

(3) वित्तीय सम्बन्ध (Financial Relations) - आर्थिक और वित्तीय दृष्टि से राज्य बहुत कुछ केन्द्र पर निर्भर रहते हैं. केन्द्र, राज्यों को अनुदान भी प्रदान करता है. राज्यों को केन्द्र की आयकर और उत्पादन शुल्क की आय में से भी अंश दिया जाता है. केन्द्र से राज्यों को किस मात्रा में आर्थिक और वित्तीय सहायता प्राप्त हो, इसका निश्चय राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त वित्तीय आयोग करता है.

भारतीय संविधान में मान्यता प्राप्त भाषाएँ

संविधान की आठवीं अनुसूची में सम्मिलित भाषाएँ - 

(1) असमिया

(2) बांगला

(3) बोडो 

(4) डोगरी 

(5) गुजराती

(6) हिन्दी

(7) कन्नड़

(8) कश्मीरी

(9) कोंकणी

(10) मैथिली

(11) मलयालम

(12) मणिपुरी

(13) मराठी

(14) नेपाली

(15) ओडिया

(16) पंजाबी

(17) संस्कृत

(18) संथाली

(19) सिन्धी 

(20) तमिल

(21) तेलुगू एवं 

( 22 ) उर्दू. 

हिन्दी राजकीय भाषा है और अंग्रेजी सहायक भाषा है. हिन्दी लगभग 38 प्रतिशत लोगों द्वारा बोली जाती है, जबकि तेलुगू 9%, बंगाली 8%, मराठी 8%, तमिल 7%, उर्दू 6%, गुजराती 5%, कन्नड़ 4%, उड़िया 3%, व मलयालम 3% लोगों के द्वारा बोली जाती है. 

मैथिली, डोगरी, बोडो व संथाली को वर्ष 2003-04 में आठवीं अनुसूची में 92वें संविधान (संशोधन) अधिनियम, 2003 के द्वारा शामिल किया गया है. नेपाली, मणिपुरी एवं कोंकणी को 1992 में 71वें संविधान संशोधन द्वारा जोड़ा गया था.

राजभाषा (National Language)

ऑफीशियल लेंग्वेजिज एक्ट 1963 में की गई व्यवस्था के अनुसार, हिन्दी 26 जनवरी, 1965 से संघ की राजभाषा बनी. इस एक्ट में यह भी प्रावधान किया गया है कि 26 जनवरी, 1965 से हिन्दी के अतिरिक्त अंग्रेजी का भी साथ-साथ उपयोग होगा.

इसके अतिरिक्त ऑफीशियल लैंग्वेजिज (अमेंडमेंट) एक्ट, 1967 में यह व्यवस्था की गई है कि अंग्रेजी का उपयोग संघ और उस राज्य के वीच में होगा, जिसने हिन्दी को ऑफीशियल लेंग्वेज (राजभाषा) नहीं बनाया है. वह राज्य, जिसने हिन्दी को राज्य की भाषा के रूप में अपनाया है, उस राज्य से, जिसने हिन्दी को राजभाषा के रूप में नहीं अपनाया है, हिन्दी में संदेश उसके अंग्रेजी अनुवाद के साथ भेजेगा. 

भारतीय संविधान के कुछ महत्वपूर्ण संशोधन (Important Amendments to the Indian Constitution)

24वाँ संविधान संशोधन (1971) - इस संशोधन के द्वारा अनुच्छेद 31 में संशोधन करके स्पष्ट किया गया कि इसमें विधि' शब्द में संविधान संशोधन सम्मिलित नहीं है एवं अनुच्छेद 368 में संशोधन करके कहा गया कि संसद की संशोधन शक्ति में किसी उपबंध के जोड़ने, परिवर्तित करने तथा निरसित करने आदि की शक्ति सम्मिलित है. इसे केशवा नन्द भारती के प्रकरण में वैध ठहराया गया.

  • 26वाँ संविधान संशोधन (1971) - इसके द्वारा भूतपूर्व राजाओं के विशेषाधिकारों, प्रिवीपर्स आदि को समाप्त किया गया. 
  • 27वाँ संविधान संशोधन (1971) - इस संशोधन के अंतर्गत अनुच्छेद 239A को संशोधित करके उसमें गोआ, दमन, दीव तथा पांडिचेरी के साथ मिजोरम को भी जोड़ दिया गया है. 
  • 28वाँ संविधान संशोधन (1972) - इसके अनुसार मूल संविधान में निहित आई. सी. एस. अधिकारियों के विशेषाधिकारों को समाप्त किया गया. 
  • 29वाँ संविधान संशोधन (1972) - इसके अनुसार भूमि सुधार संशोधन अधिनियम 1969 तथा केरल भूमि सुधार संशोधन अधिनियम 1971 को संविधान की 9वीं सूची में सम्मिलित किया गया, ताकि उन्हें किसी भी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सके.
  • 30वाँ संविधान संशोधन (1972) - इसमें अनुच्छेद 133 की धारा (1) के स्थान पर यह धारा जोड़ दी गई है कि भारत के किसी भी उच्च न्यायालय के निर्णय, आज्ञप्ति अथवा दीवानी कार्यवाही के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील की जा सकेगी, बशर्ते कि उच्च न्यायालय यह प्रमाण दे कि उस अभियोग में सामान्य महत्व का कोई सारगर्भित कानूनी प्रश्न निहित है. 
  • 31वाँ संविधान संशोधन (1974) - इसके द्वारा लोक सभा में राज्यों के प्रतिनिधित्व की संख्या 500 से बढ़ाकर 525 कर दी गई और संघीय प्रदेशों की वर्तमान सीमा को 25 से घटाकर 20 कर दिया गया. अर्थात् लोक सभा में सदस्यों की संख्या 525 से बढ़ाकर 545 कर से दी गई.
  • 32वाँ संविधान संशोधन (1974) - यह 1 जुलाई, 1974 को प्रभावी हुआ और इससे छः सूत्री आंध्र प्रदेश फार्मूला क्रियान्वित किया गया. 
  • 33वाँ संविधान संशोधन (1974) - यह संशोधन गुजरात में हुई घटनाओं का परिणाम है. वहाँ विधान सभा के सदस्यों को बलपूर्वक डरा-धमका कर विधान सभा से त्यागपत्र देने के लिए विवश किया गया था. इस संशोधन अधिनियम के द्वारा अनुच्छेद 101 और 190 में यथोचित संशोधन किए गए संशोधित अनुच्छेद में यह प्रावधान किया गया कि संसद और राज्य विधान मण्डलों के सदस्यों के द्वारा दिए गए त्यागपत्र को अध्यक्ष तभी स्वीकार करेगा - जब उसे इस बात का समाधान हो जाए कि त्यागपत्र स्वेच्छा से दिया गया है. यदि उसे विश्वास हो जाए कि त्यागपत्र स्वेच्छिक नहीं है या दबाव के कारण दिया गया है. तो वह उसे स्वीकार नहीं करेगा. मूल अनुच्छेद के अनुसार ऐसे त्यागपत्र अध्यक्ष को प्रस्तुत किए जाने पर स्वतः प्रभावी हो जाते थे. 
  • 34वाँ संविधान संशोधन (1974) - इस संशोधन के द्वारा संविधान की नवीं अनुसूची में विभिन्न राज्यों के द्वारा पारित अनेक भूमि सुधार अधिनियमों को सम्मिलित किया गया है.
  • 35वाँ संविधान संशोधन (1974) - इस संशोधन के द्वारा सिक्किम को लोक सभा तथा राज्य सभा में एक-एक स्थान देकर भारतीय संघ से सम्बद्ध किया गया. 
  • 36 वाँ संविधान संशोधन (1975) - इस संशोधन के द्वारा सिक्किम को भारतीय गणराज्य में 22वें राज्य के रूप में सम्मिलित किया गया. 
  • 37 वाँ संविधान संशोधन (1975) - इस संशोधन के द्वारा अरुणाचल (पहले जिसे नेफा कहा जाता था) प्रदेश के लिये विधान सभा तथा मन्त्रिपरिषद् की व्यवस्था की गई. 
  • 38वाँ संविधान संशोधन (1975) - इसके अनुसार आपातकालीन स्थिति की घोषणा को किसी भी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती. 
  • 39वाँ संविधान संशोधन (1975) - इस अधिनियम के अनुसार राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, स्पीकर तथा प्रधानमंत्री के निर्वाचन को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती. इन पदाधिकारियों के निर्वाचनों से सम्बन्धित झगड़ों को संसदीय कानून द्वारा हल किया जावेगा.
  • 40वाँ संविधान संशोधन (1976) - अधिनियम के प्रथम भाग ने संके 297 में संशोधन करके यह स्पष्ट कर दिया कि भारत के समुद्री क्षेत्र की सीमा में समुद्र के नीचे जीवनधारी तथा बिना जीवनधारी दोनों प्रकार के साधनों पर भारत का अधिकार क्षेत्र (Jurisdiction) होगा. अधिनियम के द्वितीय भाग ने केन्द्र और राज्यों के 46 कानूनों को संरक्षता प्रदान की. इनको न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती. ये कानून तस्करों की सम्पत्ति जब्त करने, शहरी भूमि हदबंदी, बंध्याश्रम, विदेशी विनिमय की सुरक्षा, भूमि सुधार और आपत्तिजनक सामग्री न छापने से सम्बन्धित है. इन 46 कानूनों को 9वीं तालिका में सम्मिलित कर दिया गया है. 
  • 41वाँ संविधान संशोधन (1976) - इस संशोधन के द्वारा राज्यों के लोक सेवा आयोगों के अध्यक्षों और सदस्यों की सेवा निवृत्ति की अधिकतम आयु 60 वर्ष से बढ़ाकर 62 वर्ष की गई हैं.
  • 42वाँ संविधान संशोधन (1976) - इसमें की गई मुख्य व्यवस्थाएँ निम्नलिखित प्रकार हैं - लोक सभा तथा राज्य विधान सभाओं के कार्यकाल की अवधि 5 वर्ष से बढ़ाकर 6 वर्ष करने, राष्ट्रपति केन्द्रीय मंत्रिमण्डल की सलाह के अनुसार कार्य करने को बाध्य होंगे, संविधान की प्रस्तावना में 'धर्मनिरपेक्ष समाजवादी' शब्द जोड़ना, नागरिकों के 10 मूल कर्त्तव्य, अखिल भारतीय न्यायिक सेवा का गठन, देश के किसी भी भाग में सुरक्षा की दृष्टि से आपातस्थिति लागू करने का राष्ट्रपति का अधिकार, लोक सभा और विधान सभाओं के कुल स्थानों की संख्या 1971 की जनगणना के आधार पर ही सन् 2001 तक रखना, संविधान के नीतिनिर्देशक तत्वों सम्बन्धी धारा 39 में संशोधन करके तीन नए नीतिनिर्देशक तत्व शामिल करना–

(i) आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग को निःशुल्क कानूनी सहायता देना, 

(ii) किसी उद्योग में लगे हुए संगठनों के प्रबंध में कर्मचारियों का भाग लेना, 

(iii) पर्यावरण की रक्षा और सुधार तथा वन और वन्य जीवों की सुरक्षा संविधान की धारा 226 में संशोधन करके उच्च न्यायालय द्वारा किसी व्यक्ति की रिट याचिका पर सुनवाई के अधिकार को सीमित किया जाना, ऐसी याचिका पर अन्तिम निषेधाज्ञा जारी करने से पहले दूसरे पक्ष को सुनवाई का अवसर देना. अनुच्छेद 356 के अन्तर्गत संसद या राष्ट्रपति या किसी अन्य अधिकारी द्वारा बनाए गए कानून तब तक वैध रहेंगे, जब तक कि उन्हें निरस्त नहीं जाए.

  • 43वाँ संविधान (संशोधन) अधिनियम (1977) - राष्ट्रपति ने इस संशोधन को अपनी अनुमति 13 अप्रेल, 1978 को दी. इसके द्वारा आपातस्थिति के दौरान पारित किए गए 42वें संशोधन की कुछ आपत्तिजनक व्यवस्थाओं को समाप्त किया गया. 

यह अधिनियम अनुच्छेद 31D को समाप्त करके नागरिक स्वतंत्रताओं को बहाल करता है, जिनको कम करने के लिए संसद को राज्य विरोधी क्रियाकलापों को रोकने के बहाने ट्रेड यूनियन क्रियाकलापों को रोकने के बहाने ट्रेड यूनियन क्रियाकलापों पर नियंत्रण करने का अधिकार दे दिया गया था. 

इस संशोधन के द्वारा न्यायपालिका को अपनी मौलिक स्थिति पुनः प्राप्त हो गई. उच्चतम न्यायालय राज्य के कानूनों को अवैध घोषित करने में सक्षम घोषित किया गया. इसी प्रकार उच्च न्यायालय केन्द्रीय कानूनों की संवैधानिकता पर विचार करने के लिए सक्षम घोषित किया गया. ये शक्तियाँ उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों से, आपातकाल में पारित 42वें संविधान संशोधन अधिनियम के द्वारा छीन ली गई थीं.

  • 44वाँ संविधान संशोधन (1978) - इस संशोधन के द्वारा संविधान के अनुच्छेद 83 और 172 में संशोधन करके लोक सभा और राज्य विधान सभाओं का कार्यकाल पुनः 6 वर्ष से घटाकर 5 वर्ष करने का प्रावधान किया गया. 

इसी संशोधन के द्वारा सम्पत्ति के अधिकार को मूल अधिकार के स्थान पर विधिक अधिकार (Legal Right) घोषित किया गया.

  • 45वाँ संविधान संशोधन (1980) - इस संशोधन के द्वारा अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के लोगों के लिए आरक्षण की अवधि 10 वर्ष और बढ़ाई गई. 
  • 46वाँ संविधान संशोधन (1982) - राष्ट्रपति ने संविधान के 46वें संशोधन विधेयक को अपनी स्वीकृति दे दी. यह स्वीकृति 12 जनवरी, 1983 को दी गई. 3 फरवरी, 1982 से लागू हुए इस संशोधन से कानून की कमियाँ दूर कर बिक्री कर की चोरी रोकी जा सकेगी. इस संशोधन में 'विक्रय' की परिभाषा व्यापक कर दी गई है. 
  • 47वाँ संविधान संशोधन अधिनियम (1984) - इस संशोधन के द्वारा 14 राज्यों के भूमि सुधार कानूनों को संविधान की नवीं अनुसूची में सम्मिलित किया गया. इस संशोधन के पश्चात् 9वीं अनुसूची में अधिनियमों की संख्या कुल 202 हो गई.
  • 48वाँ संविधान संशोधन अधिनियम (1984) - अनुच्छेद 356 की धारा (5) को (जिसमें राष्ट्रपति शासन की अधिकतम अवधि एक वर्ष है.) पंजाव के विषय में अप्रभावी कर दिया गया है, जिसमें आवश्यकतानुसार राष्ट्रपति शासन की अवधि को बढ़ाया जा सके. 
  • 49वाँ संविधान संशोधन अधिनियम (1984) - त्रिपुरा के गवर्नर ने संस्तुति की थी कि संविधान की छठी अनुसूची को राज्य की जनजाति क्षेत्र पर भी लागू किया जावे. इस अधिनियम का उद्देश्य राज्य में कार्यरत् स्वायत्त शासित जिला परिषद् को वैधानिक सुरक्षा प्रदान करना है.
  • 50वाँ संविधान संशोधन अधिनियम (1984) - अनुच्छेद 33 के अन्तर्गत संसद को सुरक्षा बल अथवा शान्ति व्यवस्था में कार्यरत् बलों के मौलिक अधिकारों को, जो Part III में वर्णित हैं, सीमित करने का अधिकार है. इस संशोधन के द्वारा संसद को अधिकार दिया गया है कि वह उन बलों को भी सम्मिलित कर सकती है, जो राज्य अथवा राज्य के अधीन सम्पत्ति की रक्षा करते हैं. अथवा राज्य के द्वारा उन संस्थाओं में कार्यरत् व्यक्तियों की जासूसी अथवा प्रति जासूसी माध्यमों तथा संचार व्यवस्था का कार्य करते हैं. तात्पर्य यह है कि संसद कानून बनाकर उपर्युक्त श्रेणी के संगठनों में कार्यरत् व्यक्तियों के मौलिक अधिकारों को सीमित कर सकती है.
  • 52वाँ संविधान संशोधन अधिनियम (1985) - इस संशोधन के द्वारा दल-बदल पर रोक लगाई गई है. इस संशोधन के द्वारा संविधान में निम्नलिखित उपबन्ध किए गए हैं – (i) यदि कोई सदस्य स्वेच्छा से अपने दल से त्यागपत्र देता है, या दल के द्वारा निर्मित आदेशों के विरुद्ध मतदान करता है, या मतदान के समय अनुपस्थित रहता है, या कोई निर्दलीय सदस्य एवं मनोनीत सदस्य सदस्यता के 6 माह बाद किसी दल की सदस्यता ग्रहण करता है, तो उसकी सदस्यता समाप्त हो जाएगी.
  • 53वाँ संविधान संशोधन अधिनियम (1986) - इस संशोधन के अनुसार संसद के अधिनियम मिजोरम राज्य पर तब तक लागू नहीं होंगे जब तक वहाँ धार्मिक, सामाजिक परम्पराएँ एवं पारम्परिक कानून, दीवानी और फौजदारी के कानून एवं भूमि के स्वामित्व एवं हस्तांतरण से सम्बन्धित मामलों पर मिजोरम की व्यवस्थापिका द्वारा निर्णय न दे दिया जाए. इस संशोधन के अनुसार यह भी व्यवस्था की गई है कि नए मिजोरम राज्य की विधान सभा में 40 से कम सदस्य नहीं होंगे.
  • 54वाँ संविधान संशोधन अधिनियम (1986) - इस संशोधन के द्वारा सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के न्यायाधीशों का वेतन बढ़ा दिया गया. अब सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को 5,000 रुपए से बढ़ाकर 10,000 रुपए, सुप्रीम कोर्ट के अन्य न्यायाधीशों का वेतन 4,000 रुपए से बढ़ाकर 9,000 रुपए, हाई कोर्ट के न्यायाधीशों को 9,000 रुपए एवं उसके अन्य न्यायाधीशों को 3,500 रुपए से बढ़ाकर 8,000 रुपए वेतन कर दिया गया.
  • 55वाँ संविधान संशोधन अधिनियम (1986) - इस संशोधन के द्वारा अरुणाचल प्रदेश के राज्यपाल को विशेष अधिकार दिए गए हैं. अरुणाचल प्रदेश की राज्य विधान सभा की सदस्य संख्या 30 से कम न होगी. इस संशोधन के साथ पारित अरुणाचल प्रदेश बिल के द्वारा अरुणाचल प्रदेश को पूर्ण राज्य का दर्जा प्रदान कर दिया गया है. 
  • 57वाँ संविधान संशोधन अधिनियम (1987) - इस संशोधन के द्वारा गोआ को पूर्ण राज्य का दर्जा प्रदान किया गया है.
  • 58वाँ संविधान संशोधन अधिनियम (1987) - इसके द्वारा चार पूर्वोत्तर राज्यों में विधान सभाओं में आरक्षण की व्यवस्था की गई है. 
  • 59वाँ संविधान संशोधन (1988) - यह संशोधन पंजाब के संदर्भ में है. इसमें प्रावधान किया गया है कि आन्तरिक अशान्ति की दशा में वहाँ दो वर्ष तक आपातस्थिति लागू की जा सकती है तथा राष्ट्रपति शासन की अवधि तीन वर्ष के लिए बढ़ाई जा सकती है. 
  • 60वाँ संविधान संशोधन (1988) - इसके अंतर्गत राज्यों की विधान सभाओं को अधिकार दिया गया है कि वह राज्य व स्थानीय संस्थाओं को सहायता देने के लिए व्यापारिक कर में 250 रुपए के स्थान पर 2,500 रुपए वार्षिक की वृद्धि कर सकती है. 
  • 61वाँ संविधान संशोधन (1988) - इस संशोधन के द्वारा अनुच्छेद 326 में संशोधन कर मतदाता की आयु को 21 वर्ष के स्थान पर 18 वर्ष किया गया है. इस पर आधे से अधिक राज्यों की विधान सभाओं की स्वीकृति मिलने पर राष्ट्रपति ने हस्ताक्षर किए. 
  • 62वाँ संविधान संशोधन (1989) - इस संशोधन के द्वारा अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जनजातियों के लिए आगामी 10 वर्षों अर्थात् 2000 ई. तक के लिए संसद व राज्य विधान सभाओं में आरक्षण की व्यवस्था है.
  • 63वाँ संविधान संशोधन अधिनियम (1989) - इस संशोधन द्वारा संसद ने 59वें संशोधन को पूर्णतः निरस्त कर दिया. 
  • 64वाँ संविधान संशोधन अधिनियम (1990) - इस संशोधन द्वारा पंजाब में राष्ट्रपति शासन की अवधि को 11 मई, 1990 से 6 माह के लिए बढ़ा दिया गया. यह संशोधन 65 वें संशोधन विधेयक के रूप में संसद में प्रस्तुत किया गया था, क्योंकि इसी सन्दर्भ में 64वाँ संशोधन विधेयक संसद में पारित नहीं हो सका था. 
  • 65वाँ संविधान संशोधन अधिनियम (1990) - अनुसूचित जाति / जनजाति के लिए एक राष्ट्रीय आयोग की स्थापना का प्रावधान. 
  • 66वाँ संविधान संशोधन अधिनियम (1990) - नवीं अनुसूची में अभिवृद्धि की गई.
  • 67 वाँ संविधान संशोधन अधिनियम (1990) - पंजाब में छः माह के लिए राष्ट्रपति शासन पुनः बढ़ा दिया गया. 
  • 68वाँ संविधान संशोधन अधिनियम (1991) - पंजाब में पुनः एक वर्ष के लिए राष्ट्रपति शासन बढ़ा दिया गया. 
  • 69वाँ संविधान संशोधन (1992) – दिल्ली को विधान सभा व सात सदस्यीय मंत्रिपरिषद् का विधेयक पारित. 
  • 70वाँ संविधान संशोधन (1992) - पांडिचेरी विधान सभा तथा दिल्ली की विधान सभा के निर्वाचित सदस्यों को राष्ट्रपति के चुनाव में भाग लेने का अधिकार प्रदान किया गया. 
  • 71वाँ संविधान संशोधन (1992) - नेपाली, मणिपुरी व कोंकणी भाषा को आठवीं अनुसूची में सम्मिलित किया गया. 
  • 72वाँ संविधान संशोधन (1992) – त्रिपुरा राज्य में शान्ति और सद्भाव कायम करने के लिए.
  • 73वाँ संविधान संशोधन (1993) - पंचायत राज सम्वन्धी. 
  • 74वाँ संविधान संशोधन (1993) - नगर निकाय सम्वन्धी. 
  • 75वाँ संविधान संशोधन (1994) - किराएदारों तथा मकान मालिकों के मध्य विवादों के निपटारे के लिए ट्रिब्यूनल स्थापित करने का अधिकार प्रदान किया गया. 
  • 76वाँ संविधान संशोधन (1994) - तमिलनाडु में आरक्षण अधिनियम को 9वीं अनुसूची में सम्मिलित किया गया. 
  • 77 वाँ संविधान संशोधन (1995) - प्रोन्नति में अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण सुरक्षित.
  • 78वाँ संविधान संशोधन (1995) – 6 राज्यों में भूमि सुधार कानूनों को 9वीं अनुसूची में सम्मिलित करने का प्रावधान करने के लिए. 
  • 79वाँ संविधान संशोधन अधिनियम (1999) - लोक सभा एवं विधान सभाओं में अनुसूचित जातियों व जनजातियों के लिए आरक्षण एवं एंग्लो इण्डियन सदस्यों के मनोनयन के प्रावधान में 10 वर्ष की वृद्धि अर्थात् 25 जनवरी, 2010 तक करने हेतु. 
  • 80वाँ संविधान संशोधन (2000) - इस संशोधन का सम्बन्ध केन्द्र और राज्यों के बीच राजस्व के बँटवारे से है जिसके तहत् 11वें वित्त आयोग की संस्तुतियों के मद्देनजर राज्यों का कुल अंश 29% तक बढ़ा दिया गया.
  • 81वाँ संविधान संशोधन (2000) - इस संशोधन का सम्बन्ध अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों की बची हुई रिक्तियों को आगे तक ले जाने से है. 
  • 82वाँ संविधान संशोधन (2000) - इस संशोधन का सम्बन्ध अनुसूचित जातियों / जनजातियों के अहर्ता अंकों में ढील देने एवं सुपर स्पेशलिटी पाठ्यक्रमों (मेडिकल तथा इंजीनियरिंग शिक्षा आदि) में पदों के आरक्षण से है (81वाँ तथा 82वाँ दोनों ही संशोधन सर्वोच्च न्यायालय निर्णयों को अतिक्रमित करते हुए किए गए). 
  • 83 वाँ संविधान संशोधन (2000) - इस संशोधन का सम्बन्ध अरुणाचल प्रदेश में पंचायती राज के अन्तर्गत सीटों के आरक्षण से है. 
  • 84वाँ संविधान संशोधन (2001) - इस संशोधन से अनुच्छेद 82 व 170 (3) प्रभावित हैं. इसके द्वारा 1991 की जनगणना के आधार पर राज्यों में लोक सभा व विधान सभा सीटों की संख्या में परिवर्तन किए बगैर निर्वाचन क्षेत्रों का पुनर्गठन किए जाने का प्रावधान है. बाद में 1991 की जनगणना के स्थान पर 2001 की जनगणना को आधार 87 वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2003 द्वारा मान लिया गया है, जिसके लिए संवैधानिक संशोधन की प्रक्रिया सम्पन्न की गई है.
  • 85वाँ संविधान संशोधन (2001-02) - इसके द्वारा अनुच्छेद-16 (4A) प्रभावित है. इसमें सरकारी सेवा में अनुसूचित जाति/जनजाति के अभ्यर्थियों के लिए पदोन्नतियों में आरक्षण की व्यवस्था की गई है. 
  • 86वाँ संविधान संशोधन अधिनियम (2002) – इसका सम्बन्ध अनुच्छेद 21 के पश्चात् जोड़े गए नए अनुच्छेद 21ए से है. नया अनुच्छेद 21ए, शिक्षा के अधिकार से सम्बन्धित है - "राज्य को 6 वर्ष से 14 वर्ष तक की आयु के सभी बच्चों को निःशुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध करानी होगी. यह सम्बन्धित राज्य द्वारा निर्धारित कानून के तहत् होगी." 

संविधान के अनुच्छेद 45 में निम्नलिखित अनुच्छेद जोड़ा गया है जिसमें 6 वर्ष से कम आयु के बच्चों की शुरूआती देखभाल और उनकी शिक्षा की व्यवस्था की गई है. 45- “राज्य को सभी बच्चों को तब तक के लिए शुरूआती देखभाल और शिक्षा की करने के लिए प्रयास करना होगा जब तक वह 6 वर्ष की आयु का नहीं हो जाता है.” 

अनुच्छेद व्यवस्था संविधान के अनुच्छेद 51ए में संशोधन करके (i) के बाद नया अनुच्छेद (k) जोड़ा गया है-“इसमें 6 वर्ष से 14 वर्ष तक की आयु के बच्चों के माता-पिता या अभिभावक अथवा संरक्षक को अपने बच्चे को शिक्षा दिलाने के लिए अवसर उपलब्ध कराने का प्रावधान है.”

  • 87वाँ संविधान संशोधन अधिनियम (2003) - इसके द्वारा संविधान के अनुच्छेदों 81, 82, 170 व 330 में संख्या 1991 की जगह 2001 रख दी गई है. 
  • 88वाँ संविधान संशोधन अधिनियम (2003) - इसके द्वारा संविधान के अनुच्छेदों 268, 269, 270 में आंशिक संशोधन किए गए हैं तथा संविधान की सातवीं अनुसूची में सूची 1 - संघीय सूची में 92B की प्रविष्टि के बाद निम्नवत् नई प्रविष्टि जोड़ दी गई है, अर्थात् ‘92C सेवाओं पर कर' (92C Taxes on Services) 
  • 89वाँ संविधान संशोधन अधिनियम (2003) - इसके द्वारा अनुच्छेद 338 में संशोधन करके शीर्षक में परिवर्तन कर 'नेशनल कमीशन फॉर शिड्यूल्ड कास्टस्' कर दिया गया है तथा नया अनुच्छेद 338A जोड़ दिया गया है जिसमें अनुसूचित जनजातियों के लिए पृथक् राष्ट्रीय आयोग की स्थापना का प्रावधान है.
  • 90वाँ संविधान संशोधन अधिनियम (2003) - इसके द्वारा अनुच्छेद 332 में संशोधन कर नया प्रोवीजन रख दिया गया है जिसमें असम राज्य की विधान सभा में बोडो लैण्ड टेरी टोरियल एरियाज डिस्ट्रिक्ट में सम्मिलित चुनाव क्षेत्र के प्रतिनिधित्व के सम्बन्ध में प्रावधान है. 
  • 91वाँ संविधान संशोधन अधिनियम (2003) – 97वें संविधान संशोधन विधेयक को जनवरी 2004 में हस्ताक्षरित होने के बाद अब उसे 91वाँ संशोधन अधिनियम, 2003 मान लिया गया है. इसके द्वारा दल-बदल कानून में संशोधन किया गया है. इस अधिनियम के चलते अब दल-बदल करने वाला विधायक/सांसद सदन की सदस्यता खोने के साथ-साथ सदन के शेष कार्यकाल अथवा पुनर्निर्वाचित होने तक (इनमें से जो भी पहले हो) मंत्री पद पर या लाभ के किसी अन्य पद के लिए अयोग्य हो जाएगा.

उपर्युक्त अधिनियम द्वारा ही केन्द्र और राज्यों में मंत्रियों की संख्या सीमित कर दी गई है. इसके तहत् सरकार में मंत्रियों की कुल संख्या निचले सदन की सदस्य संख्या के 15% तक हो सकेगी. छोटे राज्यों, जहाँ सदस्य संख्या 40-40 है में मंत्रियों की अधिकतम संख्या 12 हो सकेगी. 

  • 92वाँ संविधान संशोधन अधिनियम (2003) – इसके द्वारा संविधान की आठवीं अनुसूची में 4 भाषाएँ बढ़ा दी गई हैं, जो इस प्रकार हैं- मैथिली, डोगरी, बोडो एवं संथाली.
  • 93वाँ संविधान संशोधन अधिनियम (2006) - इसके द्वारा अव सरकारी विद्यालयों के साथ-साथ गैर-सहायता प्राप्त निजी शिक्षण संस्थानों में भी अनुसूचित जाति/जनजाति व अन्य पिछड़े वर्गों के अभ्यर्थियों को आरक्षण की व्यवस्था की गई है. 
  • 94वाँ संविधान संशोधन अधिनियम (2006) - अनुसूचित जनजातियों के कल्याण के लिए एक मंत्रालय का प्रावधान मध्य प्रदेश, ओडिशा के साथ-साथ छत्तीसगढ़ तथा झारखण्ड में भी किया गया है तथा बिहार में इसे समाप्त कर दिया गया है. 
  • 95वाँ संविधान संशोधन (2009) - लोक सभा एवं राज्य विधान सभाओं में अनुसूचित जातियों/जनजातियों के लिए चुनावी सीटों के आरक्षण तथा आंग्ल-भारतीय सदस्यों के मनोनयन की व्यवस्था को 26 जनवरी, 2010 से आगामी दस वर्ष के लिए बढ़ा दिया गया.
  • 96वाँ संविधान संशोधन (2011) – 'उड़िया' शब्द के स्थान पर आठवीं अनुसूची में 'ओडिया' शब्द किया गया. 
  • 97वाँ संविधान संशोधन (2011) - को-ऑपरेटिव सोसाइटीज के निर्माण की स्वतंत्रता को मौलिक अधिकारों में सम्मिलित किया गया है. राज्य के नीति-निदेशक तत्वों में राज्य को इनके निर्माण एवं प्रबंधन के लिए प्रोत्साहित करने के लिए कहा गया है. संविधान में नया भाग IX बी जोड़ा गया है जिसमें को-ऑपरेटिव सोसाइटीज के विषय में विस्तार से उल्लेख किया गया है. 
  • 98वाँ संविधान संशोधन (2013) - यहाँ कर्नाटक के राज्यपाल को सशक्त किया गया कि वह हैदराबाद-कर्नाटक क्षेत्र को विकसित करे. इससे 371J जोड़ा गया. 
  • 99वाँ संविधान संशोधन (2014) - राष्ट्रीय नियुक्ति आयोग की स्थापना हुई. अनुच्छेद 124A, 124B, 124C का समावेश किया गया तथा अनुच्छेद 127, 128, 217, 222, 224A, 231 में संशोधन किया गया.
  • 100वाँ संविधान संशोधन (2015) - 100वें संविधान संशोधन का उद्देश्य भारत एवं बांग्लादेश के मध्य हुए 41 साल पुराने भू-सीमा समझौता LBA 1974 को प्रभाव में लाना है. इस संशोधन के तहत् भारतीय संविधान की प्रथम अनुसूची में संशोधन किया गया. राष्ट्रपति ने इस संशोधन पर 28 मई, 2015 को अपनी मंजूरी दी. 
  • 101वाँ संविधान संशोधन (2016) - वस्तु एवं सेवा कर अधिनियम (जीएसटी-GST) पारित.

आज के इस पोस्ट में हमने भारत का संविधान के बारे में बताया है। भारत की स्वतंत्रता के बाद भारत को स्वंयं के संविधान की आवश्यकता हुई। इसलिए भारत ने अपना खुद का संविधान बनाया जो भारत में कानून व्यवस्था को बनाये रखने के लिए काम करती है। इसलिए भारत के संविधान से जुड़े प्रश्न विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं में पूछे जाते हैं।

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